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हरतालिका व्रत का महत्व | हरतालिका व्रत क्यों करते है ?

यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन आता है। इस दिन सुहागने और कुंवारी लड़किया गौरी-शंकर की पूजा करती हैं। मान्यता है कि हरतालिका तीज का व्रत सुहागिन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं और कुंवारी लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए व्रत रखती है। 
यह त्योहार भारत के लगभग सभी प्रांतो में मानते है पर मुख्य रूप से महारष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है। हरतालिका व्रत को हरतालिका तीज या तीजा भी कहते हैं। कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इस व्रत को "गौरी हब्बा" के नाम से जाना जाता है।  
उत्तर प्रदेश और बिहार में मनाया जाने वाला यह त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के बाद व्रत खोल दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जला व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत खोला जाता है।

Hertalika Vrat

सर्वप्रथम इस व्रत को माता पार्वती ने भगवान शिव शंकर के लिए रखा था। इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन किया जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं। शास्त्रों के अनुसार महिलाये संकल्प लेती है जिसमे "उमामहेश्वर सायुज्य सिद्धये हरतालिका व्रतमह करिष्ये" और समस्त पूजा सामग्री एकत्रित करती है | पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इसके साथ पार्वती जी को सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है और शिवजी भगवान को धोती और अँगोछा चढ़ाते है। रात में भजन, कीर्तन करते हुए जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और शिव पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है।  
इस व्रत के व्रती को शयन करना निषेध है इसके लिए उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना पड़ता है प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा एवम भक्ति पूर्वक ब्राह्मणी या किसी सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, खाद्य सामग्री, मिष्ठान्न एवम यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए तथा धोती और अंगोछा ब्राह्मण को दे।



  

Hertalika Vrat

लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार माँ पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। काफी समय सूखे पत्ते खाकर और कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा खाकर ही व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे। इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर माँ पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब अपनी पुत्री पार्वती को उनके विवाह की बात बताई तो वह बहुत दुखी हो गई और जोर-जोर से विलाप करने लगी। फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब एक सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।  
मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, उन्हें अपने मन के अनुरूप पति की प्राप्ति होती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से मनाया जाता है।



  

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