
कथा हो या आख्यान हो संदर्भ उनका चाहे ऐतिहासिक हो या पौराणिक, धार्मिक हो या सामाजिक सभी का भारतीय साहित्य में और जनमानस की चेतना में विशेष प्रसंग है, विशेष उपयोगिता है, उनका अपना विशेष महत्व है | आज इसी कड़ी में हम बात करेंगे ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी की यानी कि निर्जला एकादशी की... !!
निर्जला एकादशी की कथा का सारांश -
यद्यपि देखा जाए तो निर्जला एकादशी से संबंधित दो पौराणिक कथाएं हैं और दोनों कथाएं ही अपने मूल रूप में पांडव पुत्र भीमसेन और महर्षि व्यास की वार्ता से संबंधित है | दोनों ही कथा का संयुक्त रूप सारांश इस प्रकार है - एक बार महर्षि व्यास सभी पांडु पुत्रों ( युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव ) को वर्ष की सभी एकादशी व्रत का महात्म्य बता रहे थे जिसे सुनकर पांडु पुत्रों ने एकादशी व्रत करने का संकल्प लिया l लेकिन बलशाली भीम के लिए यह सहज मार्ग नहीं था कि मास के दोनों पक्षों में एकादशी का व्रत रख सकें क्योंकि भीम को एक दिन तो क्या एक पल भी बिना भोजन के नहीं रहा जाता उन्होंने व्यास जी से कहा - आचार्य आप तो जानते ही है कि मेरे उदर में वृक नामक अग्नि है जिसके फलस्वरूप मुझे बिना खाए नहीं रहा जा सकता। अतः आप कृपा कर कोई ऐसा मार्ग बताने का श्रम करें जिसे मैं आसानी से कर सकूं तथा सभी के बराबर फल प्राप्त हो तब व्यास जी ने कृपा कर भीमसेन को इस एकादशी की विधि बताई जिस कारण इसे "भीमसेन एकादशी" भी कहा जाता है l तथा जल ग्रहण न करने के कारण इसे "निर्जला एकादशी" कहा जाता है l
व्रत विधि -
-इस दिन उपासक को सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागकर स्नानादि से शीघ्र निवृत्त होकर भगवान विष्णु के द्वादश मंत्राक्षर "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " का जाप करना चाहिए l
- उपासक को मन, वचन, कर्म से शुद्ध होकर आत्मिक शुद्धि का प्रयास करना चाहिए l
- भोजन आज के दिन निषेध होता है अतएव अगले दिन द्वादशी को सुबह ही ब्राह्मण को भोजन खिलाकर दान दक्षिणा देने के उपरांत ही भोजन करना चाहिए l
- स्नान और आचमन के समय ही केवल जल ग्रहण किया जा सकता है इसके अलावा नहीं l
महत्व - उपासक को भगवत कृपा प्राप्त होती है तथा पाप से रहित होकर पुण्यों का संचित फल उसे बैकुंठ रूप में प्राप्त होता है, यह सभी एकादशियों में सर्वश्रेष्ठ एकादशी है l
कथा से इतर व्रत और उपवास के संदर्भ में लेखक ( डॉ. किशोर कुमार ) के विचार -
किस्से कहानियां कुछ भी हों उनकी भूमि सदैव एकांगी नहीं होती बल्कि अपने - अपने नजरिए के अनुसार बहु पक्षीय होती है l ठीक इसी प्रकार व्रत, उपवास जो भी हो मगर हम अगर आत्म मंथन करके देखें तो पाएंगे सभी का उद्देश्य एक ही है और वह है - मनुष्य के आचरण की पवित्रता, मनुष्य की मन, वचन , कर्म से शुद्धता l
किसी ने सही ही कहा हैं कि व्रत या नियम कोई कृत्य नहीं होते बल्कि स्वभाव हैं जो कि सहज रूप से होने चाहिए l अतएव मैं यह समझता हूँ और यह कहना चाहता हूं कि जब कोई फलां व्यक्ति यह कहता है कि मैं यह व्रत करता हूँ, मैं यह नियम करता हूँ तो इसका मतलब यह है कि अभी उसमें आंशिक रूप से कुछ विकृतियां विद्यमान हैं जैसे किसी क्रिया को करते समय अभिमान का मान आ जाता है लेकिन मनुष्य को इसका जरा सा भी भान नहीं हो पाता तात्पर्य यह है कि जितनी बड़ी क्रिया होगी उतना बड़ा अहंकार होगा क्योंकि कर्त्ता होने में अहम का भाव विद्यमान है, इसीलिए मनुष्य को सर्वप्रथम यह समझना चाहिए कि वह व्रत, उपवास जैसी साधनाओं की क्रियान्वयन नहीं कर रहा है बल्कि यह सोचना चाहिये कि यह स्वयं के सुधार हेतु एक योग है जो ईश कृपा से तुम्हें प्राप्त हुआ है क्योंकि यह एक साधना हैं, एक ठहराव है, एक बिंदु है जिस पर उपासक को आत्म मंथन करना है अपने जीवन को सहज सुलभ बनाना हैं न केवल आत्मोद्धार के लिए बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए बस यही असली व्रत है यही असली पूजा और यही असली पूजा का महत्व l
याद रखिए - यह संसार एक कागज की पुड़िया है और हम सब एक कठपुतली की भूमिका में है सबसे बड़ा कर्त्ता तो वो निर्माता है जो सम्पूर्ण सृष्टि के कण कण में है जिसे हम ईश्वर कहते हैंl ईश्वर से बस यही प्रार्थना है कि वह हम सभी की उन्नति का हर मार्ग प्रशस्त करे जैसा कबीर ने जिंदगी के बारे में राम से निवेदन किया है वही निवेदन हमारा भी है लिखा है-
"जरा हौले हौले हांको रे, मेरे राम गाड़ी वाले l
हांजी, धीरे धीरे हांको रे, मेरे राम गाड़ी वाले l
शुभं भवतु
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