अधिकमास का पौराणिक आधार -
भक्त प्रहलाद और राजा हिरण्यकश्यप की कहानी हम सबको विदित है, यह कथा दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध से जुड़ी है। जिसका मूलरूप अधिक मास जुड़ा हुवा है। दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से अमरता के लिए वर माँगने हेतु कठोर तप किया, कठोर तप के प्रभाव से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और मनवांछिंत वर माँगने को बोलै तो उसने अमरता का वरदान माँगा। अमरता का वरदान देना निषिद्ध है, इसीलिए ब्रह्मा जी ने उसे कोई भी अन्य वर माँगने को कहा।
तब हिरण्यकश्यप ने वर माँगा कि उसे संसार का कोई नर, नारी, पशु, देव व् असुर मार ना सके, वर्ष के किसी भी 12 माह में मृत्यु को प्राप्त ना हो, ना दिन का समय हो, ना रात का, ना किसी अस्त्र से मरे, ना किसी शस्त्र से, और ना घर में, ना ही घर से बाहर मृत्यु को प्राप्त हो। ब्रह्मा जी ने उसे यह वर दे दिया |
इस वरदान के मिलते ही हिरण्यकश्यप स्वयं को अमर मानने लगा और उसने खुद को भगवान घोषित कर दिया। समय आने पर भगवान विष्णु ने अधिक मास में नरसिंह अवतार यानि आधा पुरुष और आधे शेर के रूप में प्रकट होकर, संध्या के समय, घर की देहरीज पर अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का सीना चीर दिया और उसको मृत्यु दंड कर संसार को एक पापी से मुक्त किया।
क्यों होता है अधिकमास -
भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है। इसे मास को अधिक मास, पुरुषोत्तम मास, मल मास आदि नामों से जाना जाता है। शास्त्रानुसार इस माह में माँगलिक कार्य नहीं किये जाते बल्कि धार्मिक अनुष्ठान, स्नान, दान, उपवास आदि धर्म-कर्म के कार्य ही किये जाते हैं।
शास्त्रानुसार- यस्मिन चांद्रे न संक्रांति: सो अधिमासो निगह्यते, तत्र मंगल कार्यानि नैव कुर्यात कदाचन्।
यस्मिन मासे द्वि संक्रांतिक्षय: मास: स कथ्यते, तस्मिन शुभाणि कार्याणि यत्नत: परिवर्जयेत।।
ऐसा माना जाता है कि अधिकमास में किए गए धार्मिक कार्यों का किसी भी अन्य माह में किए गए पूजा-पाठ से 10 गुना अधिक फल मिलता है। यही वजह है कि श्रद्धालु जन अपनी पूरी श्रद्धा और शक्ति के साथ इस मास में भगवान की पूजा, अर्चना करते जिससे अपना इहलोक तथा परलोक सुधर जाये।
अधिक मास कब और क्यों आता है -
वशिष्ठ सिद्धांत के अनुसार भारतीय हिंदू कैलेंडर सूर्य मास और चंद्र मास की गणना के अनुसार चलता है। खगोलीय तथ्य है कि सूर्य एक राशि को पार करने में 30.44 दिन का समय लेता है और यही सूर्य का सौर महीना है। ऐसे 12 राशियों को पार करने यानि सौर वर्ष (बारह महीनों ) का समय जो 365.25 दिन का होता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष में 354.36 दिन ही होते हैं। लगभग हर तीन साल (32 माह, 16 दिन, 8 घटी) बाद यह अंतर 32.5 माह के बाद यह एक चंद्र माह के बराबर हो जाता है। इस समय को समायोजित करने और ज्योतिषीय गणना को सही रखने के लिये हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास होता है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति होती है। यह प्राकृतिक नियम है। जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ होता है, जिसे अधिक मास कहते है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जायें तो क्षय माह होता है। क्षय मास कभी कभी होता है।
मल मास क्यों कहा गया -
हिंदू धर्म में अधिकमास के दौरान सभी पवित्र कर्म वर्जित माने गए हैं। माना जाता है कि अतिरिक्त होने के कारण यह मास मलिन होता है। इसलिए इस मास के दौरान हिंदू धर्म के विशिष्ट व्यक्तिगत संस्कार जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह और सामान्य धार्मिक संस्कार जैसे गृहप्रवेश, नई बहुमूल्य वस्तुओं की खरीदी आदि आमतौर पर नहीं किए जाते हैं। मलिन मानने के कारण ही इस मास का नाम मल मास पड़ा है।
पुरुषोत्तम मास नाम क्यों -
अधिकमास के अधिपति स्वामी भगवान विष्णु माने जाते हैं। इस विषय में कहा जाता है कि भारतीय ज्योतिषियों ने अपनी गणना पद्धति से हर चंद्र मास के लिए एक देवता निर्धारित किए। चूंकि अधिकमास सूर्य और चंद्र मास के बीच संतुलन बनाने के लिए हुआ, तो इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई भी देवता तैयार ना हुआ। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने ऊपर लें। भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और भगवान विष्णु का एक नाम पुरुषोत्तम भी है। इसीलिए अधिकमास को पुरूषोत्तम मास के नाम से भी पुकारा जाता है।
अधिक मास में न करें -
मलमास में शुभ कार्यों को न करने का विधान हैं। जैसे कि इस माह में कोई स्थापना, विवाह, मुंडन, नव वधु गृह प्रवेश, यज्ञोपवित, नामकरण, संस्कार व कर्म करने की मनाही है तो साथ ही कुछ नया पहनना वस्त्रादि, नई खरीददारी करना वाहन आदि का भी निषेध माना जाता है। परन्तु जो कार्य पहले शुरु किये जा चुके हैं उन्हें जारी रखा जा सकता है। संतान जन्म के कृत्य जैसे गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत आदि संस्कार किये जा सकते हैं। पितृ श्राद्ध भी किया जा सकता है।
अधिक मास में करें -
अधिकमास में श्रद्धालु व्रत - उपवास, पूजा - पाठ, ध्यान, भजन, कीर्तन, तीर्थ स्नान आदि करते हैं। इस मास के दौरान यज्ञ - हवन के अलावा श्रीमद् देवीभागवत, श्री भागवत पुराण, श्री विष्णु पुराण, भविष्योत्तर पुराण आदि का श्रवण, पठन, मनन विशेष रूप से फलदायी होता है। अधिकमास के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं, इसीलिए इस पूरे समय में विष्णु मंत्रों का जाप विशेष लाभकारी होता है। ऐसा माना जाता है कि अधिक मास में विष्णु मंत्र का जाप करने वाले साधकों को भगवान विष्णु स्वयं आशीर्वाद देते हैं, उनके पापों का शमन करते हैं और उनकी समस्त इच्छाएं पूरी करते हैं। महामृत्युंजय, रूद्र जप आदि अनुष्ठान भी करने का विधान है।
अधिक मास के आरंभ होते ही प्रात:काल स्नानादि करके भगवान सूर्य को पुष्प चंदन एवं अक्षत से मिश्रित जल का अर्घ्य देकर उनकी पूजा करनी चाहिये। इस मास में देशी (शुद्ध) घी के मालपुए बनाकर कांसी के बर्तन में फल, वस्त्र आदि सामर्थ्यनुसार दान करने चाहिये।
यह भी पढ़े - अधिक मास में दान का महत्व
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