कार्तिक माह स्नान का महत्व | जाने कार्तिक माह में किये जाने वाले व्रत के प्रकार | Importance of Kartik Maah
कार्तिक माह को काती भी कहते है, इसमें कृतिका नक्षत्र होने के कारण इस माह का नाम कार्तिक माह पड़ा। शरद पूर्णिमा से कार्तिक माह व्रत शुरू होता है जो कार्तिक पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस माह में जितेन्द्रिय रह क्र प्रतिदिन स्नान करके और एक ही समय भोजन करते है तो समस्त पापो का नाश होता है। इस व्रत में सुबह जल्दी (तड़के) ही तारों की छाव में ठण्डे पानी से स्नान करते है। यदि गंगा, यमुना, गोदावरी, शिप्रा और नर्मदा जैसे पवित्र नदी में स्नान करे तो फलदायी होता है। किसी भी नदी या तालाब में प्रवेश करने से पहले हाथ - पैर को स्वच्छ करे और आचमन करे तथा जल - कुश से संकल्प करके ही स्नान करे। स्नान के पश्चात 5 पत्थर रख कर पथवारी माता की पूजा करे।
धार्मिक कार्यो के लिए सर्वोत्तम कहा जाने वाले इस माह में नित्यप्रति स्नान कर भगवान विष्णु, पथवारी माता और तुलसी जी की पूजा करते है। सांयकाल में मंदिर, पीपल के वृक्ष, और तुलसी के पौधे के पास दीपक जलाये। रोज कार्तिक की कहानी और महात्मय जरूर सुनना चाहिए।
पूजन सामग्री - रोली, मोली, अक्षत, अबीर, गुलाल, नाडा, कपूर, अगरबत्ती, सुपारी, पुष्प, कच्चा दूध, लोंग, और प्रसाद।
कार्तिक माह में किये जाने वाले व्रत के प्रकार -
नारायण - तारायण - पहले दिन तारा देख कर भोजन करना, दूसरे दिन दोपहर को भोजन करना और तीसरे दिन उपवास (निगोट व्रत)। इस क्रम में महीने भर तक व्रत करना होता है और अंतिम दिन उद्यापन कर ब्राह्मण को भोजन कराये।
तारा भोजन - कार्तिक माह में पुरे महीने तक प्रतिरात्री तारा देखकर और अधर्य देकर भोजन किया जाता है आखिर दिन ब्राह्मण को भोज कराकर चाँदी का तारा दान करते है।
प्रदोष - पुरे महीने शाम को 5 बजे भोजन करना और अंतिम दिन यथा शक्ति दक्षिणा दे।
छोटी सांकली - छोटी सांकली का व्रत में पूर्णिमा के दिन निराहार रहते है और फिर 2 दिन तक 1 समय भोजन करते है और फिर तीसरे दिन निराहार रहते है | इस प्रकार यह क्रम पुरे महीने चलता है | किन्तु इस बीच यदि रविवार या एकादशी पड़ जाये तो दो दिन तक निराहार रहते है। व्रत पूर्ण होने के अंतिम दिन हवन और उजमन करते है। तैंतीस ब्राह्मणों को भोज और 1 ब्राह्मण जोड़े को भोज करवाकर दक्षिणा देते है।
बड़ी सांकली - बड़ी सांकली में 2 दिन निराहार रहते है और तीसरे दिन 1 समय भोजन करते है। यही क्रम पुरे माह चलता है, यदि रविवार या एकादशी आ जाये तो उस दिन भी निराहार रहते है। महीना पूरा होने के समय छोटी सांकली जैसे हवं और उजमन करे, ब्राह्मण कराकर दान दक्षिणा देवे।
चन्द्रायण व्रत -
शास्त्रों के अनुसार चन्द्रायण व्रत चंद्रलोक की प्राप्ति और पापों के नाश हेतु किया जाता है। इस व्रत में नित्यप्रति प्रातः काल नहाकर तुलसी जी की पूजा करते है और पूजा के स्थान पर अखण्ड ज्योत जलाये रखते है। इस व्रत में भोजन करने का विधान है जिस प्रकार चन्द्रमा की कलाएं घटती और बढ़ती उसी प्रकार भोजन किया जाता है। पहले दिन 1 ग्रास, दूसरे दिन 2 ग्रास ऐसे बढ़ते हुवे पन्द्रवे दिन यानि अमवस्या को 15 ग्रास भोजन करें | अमवस्या के बाद एक - एक ग्रास कम करते जाना है, अमावस्या के बाद एकम को 14 ग्रास खाने है, पूर्णिमा तक १ ग्रास ही रह जायेगा | पूर्णिमा वाले दिन चंद्र - रोहिणी की मूर्ति बनाकर हवन - पूजा पाठ करें। ब्राह्मणों और परिवारजनों को भोजन कराये। इस दिन 5 बर्तन, गादी, तकिया, रजाई, ब्राह्मण को कपडे, ब्राह्मणी को साड़ी और श्रृंगार का सामान दान करना चाहिए।
पावभर खानो - पुरे महीने, 7 दिन, 5 दिन या 3 दिन तक पाव भर हलवा या लड्डू इच्छा हो खाना चाहिए। अंतिम दिन लड्डू यथा शक्ति गुप्त दान रखकर ब्राह्मण को देवे या मंदिर में रखे।
तुलसी तिरात - दीवाली के बाद आवंला नवमी से ग्यारस तक निरहार रहे। ग्यारस के दिन भगवान सालिग्राम के साथ तुलसी माँ का विवाह करे। विवाह के बाद चरणामृत लेना होता है। बारस के दिन मंदिर में जाकर व्रत खोलते है, ब्राह्मण के जोड़े से भोज करवाते है और यथा शक्ति दान देते है। उसके बाद स्वयं भोजन करते है।
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