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वट सावित्री व्रत

हमारी भारतीय हिंदू संस्कृति में व्रत का विशेष महत्व। प्रत्येक व्रत किसी ने किसी उद्देश्य को लेकर ही किया जाता है तथा उस व्रत के साथ कोई ना कोई कथा जुड़ी रहती है, जो व्रत की विशेषताओं का ज्ञान कराती है। इसके साथ ही हमारी संस्कृति के व्रत वैज्ञानिकता का आधार लिए हुए हैं, यह भी एक विशेषता है।

वट सावित्री व्रत सौभाग्यशाली महिलाओं के नारीत्व एवं साहस का प्रतीक बन गया है। यह व्रत सौभाग्य तथा संतान प्राप्त करने के लिए सौभाग्यशाली स्त्रियां करती हैं। इस व्रत को करने से उनकी मनोकामना पूर्ण होती है ऐसी आशा एवं आस्था है।

विशेषता -
वट सावित्री का व्रत अपने आप में एक विशेषता लिए हुए हैं। यह व्रत किस तिथि को किया जाता है इस संबंध में दो मत है। पहला विचार स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन होता है तथा दूसरा विचार निर्णचामृत आदि के अनुसार जेष्ठमास की अमावस्या को व्रत की बात बताई गई है। इस व्रत को करने के लिए तीन दिवस माने जाते हैं। तिथियों में भिन्नता हो तो भी व्रत का हेतु एक ही है - पति के लिए सौभाग्य वृद्धि एवं संतान प्राप्ति में सहायता। पति व्रत के संस्कार आत्मसात करने के लिए कुछ लोग इसे ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस तक तीन दिन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से त्रयोदशी तक करते हैं। पूर्णिमा के दिन विष्णु जी की उपासना की जाती। इस व्रत में पूर्णिमा श्रेष्ठ वट तथा सावित्री दोनों का विशिष्ट महत्व। वट वृक्ष में ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों का वास रहता है। माना जाता है वट वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा, मध्य में तने में विष्णु तथा ऊपरी हिस्से में शिवजी का वास होता है। सावित्री का अर्थ वेद माता सरस्वती एवं सावित्री से होता है। सावित्री का चरित्र एक ऐतिहासिक तथा भारतीय संस्कृति का द्योतक माना जाता है।

व्रत की उत्पत्ति -
कहा जाता है भद्र देश के राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति हेतु राजा नित्य एक लाख आहुतियां देते थे। यह क्रम जारी था। राजा की पूजा और श्रद्धा को देखकर सावित्री माता प्रकट हुई तथा राजा को दर्शन दिये। राजा को यह वरदान दिया कि आपको एक तेजस्वी प्रतिभाशाली कन्या का जन्म होगा। सावित्री माता की कृपा से राजा को एक पुत्री हुई इसलिए उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।

सावित्री प्रारंभ से ही तेजस्वी, सुशील, रूपमती और प्रतिभावान थी। विवाह योग हो जाने के बाद राजा को इस बात की चिंता हुई कि सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिल रहा था। राजा ने सावित्री को आदेश दिया कि अपने लिए आप स्वयं वर ढूंढिए। सावित्री अपना वर ढूंढने के लिए वन गमन को गई। एक दिन सावित्री ने एक तेजस्वी पुरुष को अपने कंधे पर कांवड़ में अपने अंधे माता-पिता को ले जाते हुए देखा। माता-पिता के प्रति भक्ति को देखकर सावित्री प्रभावित हुई और उन्होंने उसी से विवाह करने का निश्चय कर लिया। उन्होंने जानकारी हासिल की तो मालूम पड़ा साल्वे देश के राजा द्युत्सेन, जिनका राज्य दुश्मनों ने छीन लिया, वह वन में अपने पुत्र के साथ रहते हैं और वो युवक सत्यवान उन्हीं का पुत्र था। सावित्री ने सत्यवान को पति के रूप में वरण कर लिया तथा अपने पिता को सूचना दी। सावित्री ने पति की आयु बढ़ाने के लिए वट वृक्ष के नीचे घोर तपस्या की। तभी नारद जी ने यह सूचना दी सत्यवान की अल्प आयु है एक श्राप के कारण इस समय उसकी आयु 1 वर्ष है। इसलिए सावित्री से आग्रह किया वह उससे विवाह न करें। सावित्री ने उत्तर दिया हिंदू कन्या एक बार ही पति का वरण करती है और उसने सत्यवान का वरण कर लिया।

सावित्री के न मानने पर उनके पिता ने सत्यवान और सावित्री का विवाह कर दिया। सावित्री वन में आकर अपने सास ससुर की सेवा और पति की सेवा करने लगी। नारद जी के द्वारा बताई हुई सूचना के अनुसार सत्यवान की आयु के जब तीन दिन शेष रह गए तभी से सावित्री ने व्रत रखना प्रारंभ कर दिया। तीसरे दिन सत्यवान लकड़ी काटने जंगल गया और सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चली गई। नियति के अनुसार सत्यवान को चक्कर आए और वह मूर्छित होकर गिर पड़े। सावित्री ने उनका सर अपनी गोद में रख लिया। सत्यवान की आत्मा को लेने जब यमराज आए तो सावित्री उनके पीछे चल दी। यमराज ने सोचा यह वापस चली जाएगी लेकिन सावित्री लगातार उनके पीछे चलती गई। यमराज के आग्रह करने से भी ना रुकी। सावित्री के अंदर पति भक्ति, दृढ़ता तथा श्रद्धा देखकर यमराज ने सावित्री से तीन वर मांगने को कहा।

वरदान -
सावित्री ने पहला वरदान मांगा मेरे अंधे सास-ससुर की नेत्र ज्योति आ जाए तथा राज वापस मिल जाए। दूसरा वर मांगा मेरे पिता को पुत्र उत्पन्न हो तथा तीसरा वर मांगा मेरे सौ पुत्र उत्पन्न हो। यमराज ने तथास्तु कह दिया। यमराज ने कहा अब वापस जाओ। सावित्री ने उत्तर दिया मैं बिना पति के सौ पुत्र कैसे उत्पन्न करूंगी? अतः मेरे पति को जीवित कर दिया जाए। अन्य कोई उपाय न देखकर यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े।
अपने नारीत्व, प्रतिज्ञा, श्रद्धा, सतीत्व के कारण सावित्री अपने पति के प्राण वापस लेकर आई। उस दिन अमावस्या था और सत्यवान जहां मूर्छित हुए थे वहाँ वट वृक्ष था और वहीं पर वह जीवित हुए थे।
इसलिए सौभाग्यवती महिलाएं तीन दिन तक व्रत रख वट वृक्ष की पूजा कर पति और संतान की सुरक्षा मांगती हैं।

पूजन विधि -
प्रातःकाल उठकर स्नान करें और यह प्रयास हो कि किसी नदी में स्नान करें। पूजा करने के लिए एक चौकी रखें, उसे पर लाल कपड़ा बिछाएं तथा उसके ऊपर लक्ष्मी नारायण, गौरा जी तथा गणेश जी की स्थापना करें। पहले गौरा और गणेश का पूजन करें उसके पश्चात लक्ष्मी नारायण की पूजा करें। पूजन में चंदन, रोली, धूप, भीगे हुए चने, पूड़ियाँ, ऋतु फल तथा घर पर बनी हुई मिठाई का प्रसाद लगाएं। भीगे हुए चने तथा पूड़ियाँ देकर आशीर्वाद ग्रहण करें।
अमावस्या के दिन ही शनि महाराज का जन्म हुआ था। इसीलिए इस दिन शनि महाराज को भी पूजित कर सकते हैं। यह पूजन वट वृक्ष के नीचे करें। यदि वट वृक्ष न मिले तो वट वृक्ष का चित्र बनाकर रखें तथा वहां पूजन करें। इस व्रत में वट वृक्ष का बहुत महत्व है। पूजन करने के बाद कथा का पाठन एवं श्रवण करे।

कथा -
सावित्री जब अपना वर ढूंढने के लिए वन निकली। तो उन्होंने सत्यवान को पसंद किया। सत्यवान की आयु बहुत कम थी इसके लिए उन्होंने वट वृक्ष के नीचे बैठकर घोर तपस्या की। लेकिन एक श्राप के कारण सत्यवान की आयु कम हो गई थी उसे रोका नहीं जा सका। सत्यवान की मृत्यु के बाद सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। तब मजबूर होकर यमराज ने तीन वार दिए तथा सावित्री की लगन, श्रद्धा, आस्था, विश्वास से प्रसन्न होकर सत्यवान के प्राण भी वापस कर दिए।
सत्यवान और सावित्री की कथा भारतीय नारी के नारीत्व, अस्तित्व, अस्मिता का प्रतीक है। अतः सौभाग्यवती स्त्रियां इस व्रत को बड़ी श्रद्धापूर्वक करती हैं तथा यमराज से प्रार्थना करती हैं कि पति और संतान पर आए हुए कष्ट को हरे तथा जीवन सुरक्षित रखें। कथा सुनने और खाने के बाद ही व्रत पूर्ण माना जाता है।

    

      

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