घर की लक्ष्मी हैं गृहणियाँ
नारी को सम्मान, सृजन और शक्ति का प्रतीक माना गया है। हमारे धर्मग्रंथों में नारी शक्ति की महिमा गाई गई है। महिला शब्द में ही ममता, मृदुलता, मानवता और मातृत्व का समावेश है। कोई भी धार्मिक कार्य नारी के बिना पूर्ण नहीं होता है। नारी के तमाम गुणों के कारण वह प्राचीन काल से ही परिवार की मुखिया माता हुआ करती थी। आज भी घर को सँभालने वाली, परिवार के हर सदस्य की सेवा में तत्पर रहने वाली, उनके सुख - दुःख का ध्यान रखने वाली गृहणियाँ ही घर की सौभाग्यलक्ष्मी हैं।
सामाजिक मूल्यों को जीवित रखती है गृहणी
हमारी संस्कृति, रीति-रिवाज और परंपराओं को जीवित रखने में गृहणियों का बड़ा योगदान है। सदियों से दादी-नानी और माँ अपने बच्चों को महापुरुषों की कहानियाँ एवं लोककथाएँ सुनाती आई हैं। यदि संस्कृति के किसी भी पक्ष पर दृष्टिपात करें, चाहे लोक संगीत, नृत्य या शिल्प कला हो, चाहे कपड़े पहनने, भोजन बनाने या पूजा-पाठ करने का ढंग हो, इन सब रीति-रिवाजों को अगली पीढ़ी में पहुँचाने में गृहणियों का ही हाथ है। आए दिन व्रत, पर्व, त्योहार, अनुष्ठान या मेलों के आयोजन उन्हीं की सहभागिता से पूर्ण होते हैं। इस प्रकार वे उन सामाजिक मूल्यों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ाती हैं, जो परिवार और समाज को जोड़े रखते हैं।
आधुनिकता के अभिशाप से ग्रस्त हुए परिवार
आज भारतीय संस्कृति में हो रहे क्षरण से परिवार भी प्रभावित हुए हैं। पाश्चात्य संस्कृति की तथाकथित आधुनिकता के अभिशाप से ग्रस्त कतिपय लोग गृहिणी के सेवाभाव एवं कार्यों के महत्व की उपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग गृहिणी को द्वितीय स्तर की महिला मान लिया गया है। उनका कहना है कि श्रेष्ठ महिलाएँ वे हैं, जो नौकरी करती हैं, धन कमाती हैं या अर्थोपार्जन में पुरुषों का हाथ बँटाती हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित है कि अर्थोपार्जन में पुरुष या पति का हाथ बँटाना बुरा नहीं है, इसमें भी नारी की श्रमशीलता और कर्मठता झलकती है तथापि इससे घर की देखभाल करने वाली, बच्चों के लालन-पालन, उनको शील, संस्कार एवं शिक्षा पर ध्यान देने वाली नारी का महत्व कम नहीं हो जाता।
घरेलू महिलाओं की तुलना कार्यशील महिलाओं से करना उचित नहीं
घरेलू महिलाओं की तुलना में नौकरी करने वाली महिलाओं को मात्र इसलिए श्रेष्ठ मान लिया जाता है क्योंकि वे धन कमाती हैं। जीवन के संचालन के लिए धन आवश्यक है, किंतु धन ही सबकुछ है, यह मानना पूर्णतः सही नहीं है। धन के साथ परिवार के सदस्यों में शील,सेवा, संस्कार, संवेदना, सेवाभाव आदि सद्गुण भी महत्वपूर्ण है। धनार्जन की दृष्टि से सोचा जाए तो घरेलू महिलाएँ, नौकरी करनेवाली महिलाओं की तरह कमाई भले न करती हों, लेकिन भोजन पकाना, प्रत्येक सदस्य की समुचित देखभाल करना, बच्चों के लालन-पालन और पढ़ाई से लेकर, घर के अनगिनत काम करके पाई - पाई बचाती अवश्य हैं। धनार्जन के साथ, धन की बचत करना भी, एक प्रकार से आय ही है। आर्थिक सर्वेक्षण से सच यही ज्ञात हुआ है कि घर की महिलाओं का योगदान कम नहीं है। महिला घर की शांति, समृद्धि और प्रसन्नता की कुंजी है। वास्तव गृहिणी ही घर को जीवंत बनाती है।
घर में रहकर भी गृहणियाँ ले सकती हैं सरकारी योजनाओं का लाभ
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग तीन करोड़ परिवार ऐसे हैं, जिनकी कमाई घर की महिला सदस्यों पर टिकी है। पिछले दस वर्षों में देश में महिला सशक्तीकरण से अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं। इससे पुरुषप्रधान परिवारों की संख्या में कमी आने के साथ महिलाप्रधान परिवारों की संख्या बढ़ी है। इस तरह की स्थितियों से यह स्पष्ट है कि घर की कमाई में महिलाओं की भूमिका बढ़ गई है। भारत सरकार की कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनका लाभ महिलाएं घर में रहकर भी उठा सकती हैं, यथा पोषण अभियान, सुकन्या समृद्धि योजना, महिला सम्मान बचत प्रमाणपत्र, उद्यम शक्ति पोर्टल, प्रधानमंत्री मातृ वंदना, स्टैण्ड-अप इण्डिया, उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत अभियान, महिला जन - धन खाता, पी एम मुद्रा योजना, स्वाधार गृह योजना महिला शक्ति केंद्र, महिला हेल्प लाइन आदि।
घरेलू महिलाओं को गृहकार्यों का मूल्य भुगतान का सुझाव बुरा नहीं
घरेलू महिलाओं की महती भूमिका स्वीकार करते हुए भारत सरकार के बाल कल्याण विभाग ने यह सुझाव दिया था कि घरेलू महिलाओं को अपने घर में किए कार्यों के लिए
पति की आय का कुछ हिस्सा मिलना चाहिए। उनका यह सुझाव उन माताओं और दादियों के संदर्भ में भी उपयोगी है, जो कामकाजी दंपत्ति के घर के बाहर काम पर जाने के बाद घर तथा बच्चों की देखभाल करती हैं। इस सुझाव की गंभीरता भले ही लोग न स्वीकार करें, किन्तु यह शतप्रतिशत सत्य है कि जो महिलाएँ घर में साफ-सफाई करती हैं, दिन में कई बार नाश्ता - भोजन बनाती हैं, कपड़े धोती हैं, बच्चों को पालती हैं, उन्हें प्रातः स्कूल के लिए तैयार करती हैं, बड़े - बुजुर्गों की सेवा करती हैं, उनका रात-दिन का योगदान किसी एक महत्वपूर्ण गृह प्रबंधक से कम नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को नल या कुएँ से पानी लाना, किसान पति को खेत पर खाना पहुँचाना, कंडों के लिए गोबर थापना, अनाज साफ करना, पशुओं को चारा - पानी देना आदि सारे घरेलू श्रेणी के कार्य हैं, जिनको घरेलू महिलाओं का कर्तव्य समझा जाता है। इस दृष्टि से वे सम्मान के साथ - साथ, पारिश्रमिक पाने की अधिकारिणी अवश्य हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है कि एक गृहिणी के काम को अनुत्पादक मानना महिलाओं के प्रति भेदभाव है। इस संदर्भ में किए एक शोध के अनुसार भारत की 36 करोड़ गृहणियों के कार्यों का वार्षिक मूल्य लगभग 612. 8 अरब डॉलर आंका गया है। इन सब घरेलू कार्यो का श्रम - मूल्य यदि बाजार भाव से ज्ञात किया जाए तो आंकड़े सचमुच चौंकाने वाले होंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी सुझाव दिया है कि संसद में कानून में संशोधन करके किसी दुर्घटना या वैवाहित संपत्ति के बँटवारे के समय उनके कार्यों का समुचित मूल्यांकन किया जाए।
गृहणियों के कामकाज की उपेक्षा उचित नहीं
परिवार तथा समाज की नींव महिलाओं के उन्हीं कार्यों पर टिकी है, जो कहीं अंकित नहीं किए जाते। ग्रामीण जीवन में तो महिलाओं के योगदान के बिना कृषि कार्य संभव ही नहीं है। शहरों में भी अनेक घर - बाहर के कार्य महिलाएं ही सँभालती हैं। वे बैंक, डाकघर, चिकित्सालय तथा अनेक कार्यालयों एवं बाजारों में जाकर घर - परिवार से संबंधित आवश्यक कार्य पूरे करती हैं। शिक्षित महिलाओं के एक बड़े वर्ग ने रोजी - रोजगार के नए- नए क्षेत्रों में अवसर जुटाए हैं, लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी है, जिन्होंने अपनी उच्च शिक्षा के बाद भी गृहिणी बनना स्वीकार किया है। उन्होंने घर - परिवार को पर्याप्त समय देना उचित समझा जिससे बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बन सके। वे घर - परिवार के दैनंदिन कार्य, जीवन को सुंदर बनाने के लिए जो योगदान कर रहीं हैं, उसका मूल्य धन से नहीं आंका जा सकता। यह विचारणीय है कि विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों की भाँति उनके कार्य के मूल्यांकन का कोई ठोस पैमाना नहीं बन सका है।
गृहणियों के कार्यों का उचित मूल्यांकन
आज संयुक्त परिवार विखंडित हो रहे हैं तथा पति-पत्नी दोनों कामकाजी होने के कारण अधिकांश समय घर के बाहर रहते हैं, जिससे बच्चों के देखभाल की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। उनके लिए आया रखनी पड़ती है, जिससे न तो बच्चों का सही प्रकार से लालन-पालन हो पाता है और न जीवनोपयोगी संस्कार नहीं मिल पाते हैं। इसका केवल एक ही उचित समाधान है कि धनार्जन की दौड़ छोड़कर कर गृहिणी ही कुशलता से बच्चे और परिवार की देख - रेख करें। समाज की गृहिणियों के कार्य को महत्व देना होगा, उसका मूल्यांकन करना होगा। यदि समाज ऐसी मानसिकता विकसित कर पाएगा तो अनेक समस्याएँ स्वतः सुलझ जाएंगी। इससे यह भी सुस्पष्ट हो सकेगा कि गृहिणी ही घर - परिवार तथा समाज की श्री, शोभा और सौभाग्यलक्ष्मी है।
जॉर्ज हर्बर्ट के मतानुसार - '' एक अच्छी माता सौ शिक्षकों के बराबर होती है, इसलिए उसका हर स्थिति में सम्मान होना चाहिए। ''
यह भी सत्य है कि एक अच्छी माता कुशल गृहिणी ही हो सकती है।

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