
होली की सतरंगी छटा
श्वेता को पिछले साल की होली याद थी। कभी नहीं भूल सकती थी उस होली के हुड़दंग को। होली के ठीक दूसरे दिन वह बीमार पड़ गई थी। मम्मी-पापा बहुत परेशान हो गए थे। उसे एक हफ्ते के लिए हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा था; स्कूल से अनुपस्थित रहना तो अलग ही।
इस बार उसने ठान लिया था कि वह अपनी सहेलियों के साथ रंग–गुलाल खेलने बाहर नहीं जाएगी। तभी हिमांशी, नीलिमा और गीतांजलि को अपने घर की ओर आते देख उसने फट से दरवाज़ा बंद कर लिया और एक कमरे में चुपचाप बैठ गई।
श्वेता के घर पहुँचते ही नीलिमा ने उसकी मम्मी से पूछा—
"आंटी जी, श्वेता कहाँ है?"
मुस्कुराते हुए मम्मी बोलीं—
"अभी तो बाहर ही खड़ी थी। तुम सबको आते देख अंदर चली गई। उसे बुलाओ न।"
"श्वेता! अरी श्वेता, बाहर आओ न। होली खेलेंगे बहन। काहे को दरवाज़ा बंद किए बैठी हो?" हिमांशी ने दरवाज़ा हिलाते हुए आवाज़ लगाई।
"नहीं... नहीं... न बाबा, न! मुझे होली नहीं खेलनी।" श्वेता की आवाज़ आई।
फिर हिमांशी ने दरवाज़े के छेद से अंदर झाँका और बोली—
"हमें देखते ही कमरे में ऐसे घुस गई जैसे चूहा बिल्ली को देख कर बिल में घुस जाता है। चलो बाहर आओ, डरपोक कहीं की।"
सब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
श्वेता की मम्मी बोलीं—
"अरे बिटिया! बाहर तो आओ पहले। सबसे गले मिलो, अच्छा लगेगा। देखो, ये सब इतनी दूर से तुझसे मिलने आई हैं। यह लड़की भी न, बड़ी अजीब है।"
श्वेता, मम्मी की बातें सुनकर भी चुप रही। दरवाज़ा खोलने का नाम नहीं ले रही थी। होली का नाम सुनते ही वह अंदर से काँप जाती थी। उसे होली से जैसे नफ़रत-सी हो गई थी। आखिर बोली—
"एक शर्त पर ही दरवाज़ा खुलेगा।"
"ठीक है, बताओ तुम्हारी शर्त।" सभी एक-दूसरे को देखने लगीं।
"यही कि तुम लोग मुझे रंग नहीं लगाओगी।" श्वेता ने फट से कहा।
गीतांजलि बोली—
"ठीक है बाबा! हम तो तुम्हारे लिए फूलों की पंखुड़ियाँ लाए हैं। उन्हीं से होली खेलेंगे तुम्हारे साथ। अब तो दरवाज़ा खोलो।"
सबकी मस्ती भरी बातें चलने लगीं।
जैसे ही श्वेता ने दरवाज़ा खोला, सभी सहेलियाँ उस पर टूट पड़ीं। जैसे बरसों बाद मुलाकात हुई हो।
श्वेता अचरज भरी निगाहों से बोली—
"अरे यार! सच में, तुम लोग भी न! मैं तो डर ही गई थी तुम्हारे इन मुखौटों, नकली बालों और लाल–पीले हाथों को देखकर। लगा कहीं फिर से मेरे चेहरे पर रंग न लगा दो, जिससे गोल-गोल दाने निकल आएँ। याद है न, पिछली बार की होली... मैं कैसे...? खैर छोड़ो।"
कुछ देर शांत रहने के बाद हिमांशी बोली—
"धत् पगली! भला हम तुम्हारा नुकसान कर सकते हैं क्या? हम दुश्मन थोड़े ही हैं जो तुम्हें भांग खिला कर बदला लेंगे। तुम तो हमारी बेस्टि हो। रात गई, बात गई।"
तभी गीतांजलि ने खुशबूदार गेंदे, गुलाब और चमेली के फूल सब पर फेंकते हुए कहा—
"लेकिन असली मज़ा तो रंगों से आता है न। तो चलो फ्रेंड्स, थोड़ी मस्ती बाहर भी कर लेते हैं।"
श्वेता बड़ी मुश्किल से बाहर निकली। इस बार माहौल सबसे अलग था। होली के रंगों में प्यार की छटा थी। हर्बल होली का रंग था न, भला कैसे किसी को नुकसान होता।
श्वेता यह सब देख भौचक्की रह गई। तभी उसकी नज़र पास में खड़े कुछ पुलिसवालों पर पड़ी। दिमाग में कुछ बातें आने लगीं। उसने अपने मम्मी–पापा को भी देख लिया।
मम्मी–पापा श्वेता के मन की बात समझ गए और उसके पास आकर बोले—
"देखो बिटिया रानी, होली खेलना कोई ग़लत नहीं है जैसा तुम सोचती हो। यह हमारे पूर्वजों की आन–बान और सम्मान है। इसे जीवित रखना हमारा परम कर्तव्य है। हाँ, कुछ लोग नशे में हुड़दंग करते हैं, यह नहीं होना चाहिए। देखो, ये पुलिस वाले अपने परिवार को छोड़कर हमारी सुरक्षा के लिए आए हैं, ताकि हम त्यौहार का पूरा आनंद ले सकें।"
फिर श्वेता और उसकी सहेलियों ने थोड़ा-थोड़ा रंग लेकर पुलिसवालों को लगाया और उन्हें सलाम किया।
सबका एक ही कहना था—
"यह हमारी परंपरा है, जिसे हम कभी नहीं भूल सकते। इससे हममें स्नेह, भ्रातृत्व और एकता की भावनाएँ पनपती हैं। हाँ, खेलने का तरीका बदल सकते हैं, पर होली खेलना नहीं।"
सबने एक-दूसरे को होली की बधाइयाँ दीं। इस बार सबके मन में सतरंगी छटा छा गई। सभी खुशी से झूम उठे—
"होली है भाई, होली है... सरा.. ररा.. होली है!"
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