अंतर्वेदना
"मुझे अपनी शरण में ले लो राम... ले लो राम।
मुझे अपनी शरण में ले लो राम...!!"
"रानो, तुम यह उदासी भरा भजन क्यों गा रही हो? और यह क्या—तुम्हारी आँखें तो सरोवर की तरह डबडबा गई हैं?" प्यारे ने अपनी पत्नी रानो के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
"प्यारे! अब जीवन अंतिम पड़ाव पर है। भगवान का भजन ही हमें मोक्ष की ओर ले जाएगा।" रानो ने प्यारे के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
"धत्त पगली! हमने कौन सा पाप किया है। पाप ही तो..." रानो कुछ और बोलती, उससे पहले ही प्यारे ने उन्हें चुप करा दिया।
"अच्छा सुनो रानो!"
"हाँ प्यारे, कहो।"
"पता है न, इस बार हमारी वैवाहिक वर्षगांठ पर कौन आने वाला है?"
"अरे हाँ! मैं कैसे भूल सकती हूँ।" रानो मुस्कराती हुई बोली।
"क्या रानो, तुम भी न!"
"प्यारे, न जाने क्यों मेरा हृदय उनसे मिलने को इतना आतुर है। और दूसरी तरफ मन के कोने में छिपा भय बार–बार संकेत कर रहा है... लेकिन क्या? मुझे समझ नहीं आ रहा।"
तभी रानो और प्यारे की बातें उनके खास मित्र लखन लाल जी ने सुन लीं। वे बोले—
"क्या बहन जी! आपको हमने कितनी बार समझाया है, ज्यादा मत सोचिए। आप लोगों को बहुत अच्छा तोहफ़ा मिलने वाला है। खास मैनेजर साहब ने इंतज़ाम किया है। भई, मैनेजर साहब से हम बहुत बार मिल चुके हैं, अब आप लोगों की बारी है।"
थोड़ी देर बाद... दूर खड़ी प्यारे और रानो की केयरटेकर आई और बोली—
"सुनो... सुनो... सुनो! सभी एक जगह इकट्ठा हो जाइए। जिस पल का आप लोगों को इंतज़ार था, वह खत्म हुआ।“
सभी के चेहरों पर मुस्कान की लालिमा दस्तक देने लगी।
"चलो रानो, जल्दी चलो। वे आ गए हैं।"
दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर तेज़ चलने लगे। प्यारे की खुशी का ठिकाना ही नहीं था, मानो कोई अपना आया हो।
"हाँ प्यारे, अब चलो भी!"
"ओह! इतनी सुंदर सजावट मैंने आज तक नहीं देखी।" रानो अपने दोनों गालों पर हाथ रखकर हैरानी से बोली।
"सच... आखिर मैनेजर साहब कौन हैं और कहाँ हैं? चलिए न प्यारे, सबसे पहले उन्हें आशीर्वाद देकर धन्यवाद करते हैं।"
"अरे! शायद वे ही हैं मैनेजर साहब।"
पीछे मुँह करके खड़े थे। जैसे ही प्यारे ने उनके कंधे पर हाथ रखा, वे उनकी ओर मुड़े।
"ये क्या!... प्यारे, ये तो तुम्हारा भतीजा है, जो विदेश में रहता है!"
"हाँ रानो!"
कुछ सेकंड तक तीनों एक-दूसरे को टकटकी लगाकर देखते रहे। प्यारे की लड़खड़ाती ज़ुबान से निकला—
"आपने तो हमें सरप्राइज़ ही दे दिया।"
"मैनेजर साहब! सही कहते थे लोग... धन्य हैं तुम्हारे माता-पिता, धन्य हैं, जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया है।" बोलते हुए रानो मैनेजर साहब के दोनों हाथ पकड़कर रो पड़ी।
"देर से ही सही, तुम्हें अक्ल तो आई।"
"जो बेटा अपने माँ–बाप की जीते-जी सेवा न कर सका, आज उनके गुज़र जाने के बाद इतने बड़े वृद्धाश्रम में दूसरों के माँ–बाप को संभालने और खुश रखने की ज़िम्मेदारी उठा रहा है। अच्छा अवसर ढूँढ रखा है तुमने अपने पश्चाताप का, बेटा।" प्यारे ऊँची आवाज़ में बोले।
अपनी नाराज़गी जताते हुए प्यारे, रानो का हाथ पकड़कर उल्टे पाँव कमरे की ओर लौट गए। वृद्धाश्रम में खड़े बुज़ुर्गों की आँखें भर आईं। दूसरी तरफ मैनेजर साहब सिर झुकाए फफक कर रो पड़े।
रानो और प्यारे को उनकी इकसठवीं वर्षगांठ का यह तोहफ़ा हृदय की गहराई तक झकझोर गया।

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