Bhartiya Parmapara

तुलसीदास की दृष्टि में नारी शक्ति, प्रकृति, अग्नि और काल का दर्शन

नारी शक्ति, प्रकृति, अग्नि और समय 

 

नारी शक्ति, प्रकृति, अग्नि और समय: तुलसीदास की दार्शनिक दृष्टि में  
तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस सरल अवधी भाषा में काव्य रूप में लिखा गया एक अद्भुत ग्रंथ है, जो न केवल श्रीराम के चरित्र, आदर्शों और मर्यादा का अमृतमय वर्णन करता है, बल्कि भारतीय संस्कृति, धर्म, नीति और भक्ति का जीवंत प्रतीक है तथा जनमानस की आत्मा से जुड़ा हुआ है। यह मानव स्वभाव, जीवन की जटिलताओं और प्रकृति के नियमों का दार्शनिक प्रतिबिंब भी प्रस्तुत करता है। इसमें प्रेम, करुणा, त्याग, सेवा और धर्म का ऐसा अनुपम संगम है, जो हृदय को पवित्र करता है। वास्तव में यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव स्वभाव, जीवन की विसंगतियों और प्रकृति के नियमों का गहन दार्शनिक प्रतिरूप है। इसमें लोक और शास्त्र दोनों का अद्भुत सामंजस्य समाहित है।

रामचरितमानस के अयोध्या कांड के दोहा क्रमांक 47 में लिखा है—  
“काह न पावकु जारि सक, का न समुद्र समाइ।  
का न करै अबला प्रबल, केहि जग कालु न खाइ॥”

इस दोहे में अग्नि, समुद्र (प्रकृति), नारी तथा काल की असीमित शक्तियों का संकेत मिलता है। इसके अनुसार—   
“काह न पावकु जारि सक” अर्थात इस जगत में ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसे अग्नि भस्म न कर सकती हो?  
“का न समुद्र समाइ” अर्थात ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसे विशाल समुद्र निगल न सकता हो?  
“का न करै अबला प्रबल” अर्थात ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसे निश्चय करने पर प्रबल नारी नहीं कर सकती?  
“केहि जग कालु न खाइ” अर्थात ऐसा कौन है जिसे काल (मृत्यु) निगल न सके, जिसकी मृत्यु न होती हो?

वस्तुतः यह दोहा एक साथ चार शक्तियों की चर्चा करता है—अग्नि, समुद्र, स्त्री और काल। जब ये चारों सक्रिय और प्रबल होते हैं, तो कोई भी सीमा या पूर्वग्रह इनके प्रभाव को रोकने में असमर्थ होता है।  
अग्नि और समुद्र (जल) की शक्ति -  
दोहे के प्रथम और द्वितीय भाग में अग्नि और जल में निहित प्राकृतिक शक्तियों की व्याख्या है। ये दोनों तत्व स्वभावतः विरोधी होते हुए भी असीमित शक्तियों और क्षमताओं वाले हैं। अग्नि जहाँ विनाश की प्रतीक है, वहीं शुद्धिकरण का माध्यम भी है। समुद्र अपने विशाल स्वरूप में जीवन का उद्गम और विनाश दोनों समेटे हुए है। मर्यादा में रहते हुए ये दोनों जीवन और विकास में सहायक बनते हैं, किंतु जब मर्यादा लांघने पर विवश होते हैं, तो विनाशक रूप धारण कर लेते हैं। इतिहास में जंगलों की भस्म होती हरियाली और समुद्री तूफानों में डूबती बस्तियाँ इसका प्रमाण हैं। यह हमें चेतावनी देता है कि मानव को प्रकृति की शक्तियों को पहचानना और उनका सम्मान करना चाहिए। प्राकृतिक संपदा का दुरुपयोग न हो, यही विवेकपूर्ण आचरण है और समस्त जीवन का हित भी।

स्त्री शक्ति -  
दोहे के तीसरे भाग में तुलसीदास स्त्री को ‘अबला’ कहकर उस समय समाज में प्रचलित पारंपरिक छवि को स्वीकार करते हैं, किंतु वे यह भी कहते हैं कि जब वह ‘प्रबल’ हो जाती है और निश्चय कर लेती है, तब वह असीम शक्तिशाली हो उठती है।   
भारतीय नारी ने राजकाज, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, शिक्षा, चिकित्सा, अध्यात्म, समाज सेवा, राजनीति तथा सैन्य क्षेत्र तक में अपनी शक्ति और क्षमता का परिचय दिया है और आज भी हर क्षेत्र में सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रही है।

भारतीय इतिहास में अनेकों ऐसी नारियाँ हुई हैं जिन्होंने अपने ज्ञान, शौर्य और समर्पण से अमिट छाप छोड़ी—गर्गी, मैत्रेयी, सीता, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होलकर, जीजाबाई, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, कनकलता बरुआ, सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, डॉ. असीमा चटर्जी, डॉ. टेसी थॉमस, डॉ. ऋतु करिधाल, डॉ. मीनल संपत, डॉ. जानकी अमल, डॉ. इंदिरा हिंदुजा आदि। ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि भारत की नारी न पहले कभी ‘अबला’ रही है और न ही आज है। अतः ‘सबला’ ही नारी की सही परिभाषा है।

                                     

                                       

यह दोहा भारतीय नारियों के लिए संदेश है कि उन्हें अपनी निहित शक्तियों को पहचान कर उन्हें सकारात्मक दिशा देनी चाहिए। यह सत्य है कि स्त्री, यदि जागरूक और दृढ़ निश्चयी हो, तो किसी भी अन्याय या संकट का सामना कर सकती है। वह कठिन से कठिन कार्य को पूरा कर सकती है और जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान भी खोज सकती है। वह मां चंडी की तरह शत्रुओं का सामना और उनका संहार कर सकती है, तथा माता कौशल्या की तरह अपने पुत्र को संस्कारित कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी बना सकती है।  
काल की शक्ति -  
दोहे के अंतिम चरण में ‘काल’ की सर्वव्यापी और अपरिहार्य सत्ता का बोध कराया गया है। यह मानव के लिए संदेश है कि प्रकृति पर विजय की आकांक्षा छोड़कर उसे शांति, सद्भाव, सामंजस्य और विकास की ओर बढ़ना चाहिए। समय (काल) से कोई भी अछूता नहीं रहा—न राजा, न रंक, न ज्ञानी, न अज्ञानी, न बलशाली, न निर्बल। आज के संदर्भ में ‘काल’ केवल मृत्यु नहीं, बल्कि समय का प्रतीक भी है। यदि समय को साधा जाए तो निर्माण का कारण बनता है, और यदि गँवाया जाए तो विनाश का। यह अटल ब्रह्मांडीय सत्य है कि परिवर्तन और विनाश समय के साथ अनिवार्य हैं। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा।

तुलसीदास की दृष्टि में नारी और समाज -  
तुलसीदास की भक्ति परंपरा में नारी न तो निष्क्रिय है और न ही निर्बल पात्र, बल्कि सशक्त, श्रद्धेय और आध्यात्मिक रूप से समर्पित साधिका है। उन्होंने सीता, शबरी, अन्नपूर्णा और कौशल्या के माध्यम से नारी के विविध आयाम—शक्ति, भक्ति, करुणा, ज्ञान और त्याग—को आत्मीयता से प्रस्तुत किया।  कुछ लोग तुलसीदास के साहित्य की चौपाई—  
“ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥”  
को आधार बनाकर रामचरितमानस को कटघरे में खड़ा करते हैं। वे इस विशाल काव्य की गहराई और संदर्भ को समझे बिना केवल एक पंक्ति पर पूर्वाग्रह रचते हैं। जबकि ‘ताड़ना’ शब्द के अनेक अर्थ हैं। सही व्याख्या वही कर सकता है जो अच्छे पाठक और व्याख्याकार की भूमिका निभाए। यदि ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाए, तो स्पष्ट होता है कि तुलसीदास ने अपने साहित्य में नारी को हमेशा भक्ति, त्याग, प्रेम और शक्ति का प्रतीक माना है। यह तभी संभव है जब उनकी दृष्टि में नारी का यही स्वरूप रहा हो।

निष्कर्ष -   
रामचरितमानस का यह दोहा केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि जीवन के चार सार्वभौमिक सिद्धांतों का दार्शनिक प्रतिपादन है—प्रकृति की मर्यादा, नारी की शक्ति, समय का मूल्य और विनाश की अनिवार्यता। यह हमें चेतावनी देता है कि किसी को भी कमजोर या तुच्छ न समझें—न नारी को, न प्रकृति को, और न ही काल को।

रामचरितमानस केवल साहित्य नहीं, बल्कि जीवन का दिशा-सूचक है—जहाँ हर सत्ता की मर्यादा को समझना और उसे यथोचित सम्मान देना ही सच्चे कल्याण की राह है।

 

                                     

                                       

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