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वेदों की अमूल्य सूक्तियाँ – जानिए 80 अनमोल वैदिक रत्न


जानिये वेदों की अमूल्य सूक्तियां यानि अनमोल रत्न

 

१) न यस्य हन्यते सखा न जायते कदाचन ।।  ऋ०१०/१५२/१ 
- ईश्वर के भक्त को न कोई नष्ट कर सकता है,  न जीत सकता है।

२) तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ।। अ० ६/७९/३ 
- हे प्रभो हम तेरे भक्त हों ।

३) स नः पर्षद् अतिद्विषः ।। अ० ६/३४/१ 
- ईश्वर हमें द्वेषों से पृथक कर दे।

४) न विन्धेऽस्य स्तुतिम ।। ऋ० १/७/७ 
- मैं परमात्मा की स्तुति का पार नहीं पाता।

५) यत्र सोमः सदमित्, तत्र भद्रम् ।। अ० ७/१८/२ 
- जहां परमेश्वर की ज्योति है , वहां सदा ही कल्याण है।

६) महे चन त्वामद्रिवः परा शुक्लाय देयाम् ।। ऋ० ८/१/५ 
- हे ईश्वर ! मैं तुझे किसी कीमत पर भी न छोड़ूँ।

७) स एष एक एकवदेक एव।। अ० १३/४/२० 
- वह ईश्वर एक और सचमुच एक ही है।

८) न रिष्यते त्वावतः सखा ।। ऋ०१/९१/८ 
- ईश्वर ! आपका मित्र कभी नष्ट नहीं होता।

९)ओ३म् क्रतो स्मर ।। य० ४०/१५ 
- हे कर्मशील मनुष्य!तू ओ३म् का स्मरण कर।

१०) एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ।। ऋ०६/३६/४ 
- वह सब लोकों का एक ही स्वामी है।

११) ईशावास्यमिदं सर्वम् ।। य०। ४०/१ 
- इस सारे जगत् में ईश्वर व्याप्त है।

१२) त्वमस्माकं तव स्मसि ।। ऋ०८/९२/३२ 
- प्रभु ! तू हमारा है, हम तेरे हैं।

१३) अधा म इन्द्र श्रृणवो हवेमा ।। ऋ०७/२९/३ 
- हे प्रभु !अब तो मेरी इन प्रार्थनाओं को सुन लो।

१४) तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः ।। अ० १०/८/४४ 
- आत्मा को जानने पर मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता।

१५) यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।। ऋ०१/१६४/३९ 
- जो उस ब्रह्म को नहीं जानता, वह वेद से क्या करेगा।

१६) तवेद्धि सख्यम् स्तृतम् ।। ऋ० १/१५/५ 
- प्रभो! तेरी मैत्री ही सच्ची है।

१७) स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरूषेभ्यः ।। अ० १/३१/४ 
- सब पशु पक्षी और प्राणीमात्र का भला हो।

१८) स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु ।। अ० १/३१/४ 
- हमारे माता और पिता सुखी रहें।

१९) रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ताऽनीनशम् ।। अ०७/११५/४ 
- पुण्य की कमाई मेरे घर की शोभा बढावे और पाप की कमाई को मैं नष्ट कर देता हूं।

२०) मा जीवेभ्यः प्रमदः ।। अ०८/१/७ 
- प्राणियों की और से असावधान मत हो।

२१) मा प्रगाम पथो वयम् ।। अ० १३/१/५९ 
- सन्मार्ग से हम विचलित न हों।

२२) मान्तः स्थुर्नो अरातयः ।। ऋ० १०/५७/१ 
- हमारे अन्दर कंजूसी न हो।

२३) उतो रयिः पृणतो नोपदस्यति ।। ऋ० १०/११७/१ 
- दानी का दान घटता नहीं।

२४) अक्षैर्मा दीव्यः ।। ऋ० १०/३४/१३ 
- जुआ मत खेलो।

२५) जाया तप्यते कितवस्य हीना ।। ऋ० १०/३४/१० 
- जुएबाज की स्त्री दीन हीन होकर दुःख पाती रहती है।

२६) प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।। अ० १९/६२/१ 
- सबका कल्याण सोचो, चाहे शूद्र हो, चाहे आर्य।

२७) न स सखा यो न ददाति सख्ये ।। ऋ० १०/११७/४ 
- वह मित्र ही क्या, जो अपने मित्र को सहायता नहीं देता।

२८) वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।। यजु० १९/४४ 
हम सर्व सम्पतियों के स्वामी हों।

२९) अनागोहत्या वै भीमा।। अ० १०/१/२९ 
- निरपराध की हिंसा करना भयंकर है।

३०) क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ।। (ऋ० १/६५/५) 
- प्रातः जागने वाला प्रबुद्ध होता है। उसे सब स्नेह करते हैं।

३१) (सोम) न रिष्यत्त्वावतः सखा ।। (ऋ० १/९१/८) 
- हे सोम (परमात्मा)! तेरा सखा कभी दुःखी नहीं होता।

३२) त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ।। (ऋ० १/९१/२२) 
- अपने ज्ञान के प्रकाश से हमारे अज्ञान को नष्ट करो।

३३) पितेव नः श्रृणुहि हूयमानः ।। (ऋ० १/१०४/९) 
- पुकारे जाने पर पिता की भाँति हमारी टेर सुनो।

३४) अघृणे न ते सख्यमपह्युवे ।। (ऋ० १/१३८/४) 
- हे प्रभो! तेरी मित्रता से इन्कार नहीं करता।

३५) दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ।। (ऋ० १/१४७/३) 
- दबाने वाले शत्रु उपासक को नहीं दबा सकते।

३६) मा श्रुतेन वि राधिषि ।। (अथर्व० १/१/४) 
हम सुने हुए वेदोपदेश के विरुद्ध 
आचरण न करें ।

३७) अपृणन्तमभि संयन्तु शोकाः ।। (ऋ० १/१२५/७) 
- लोकोपकारहीन कृपण को शोक घेर लेता है।

३८) मा प्र गाम पथो वयम् ।। (ऋ० १०/५७/१) 
- हम वैदिक मार्ग से  न हटें ।

३९) मात्र तिष्ठः पराङ् मनाः ।। (अथर्व० ८/१/९) 
- इस संसार में उदासीन मन से मत रहो।

४०) अघमस्त्वघकृते ।। (अथर्व० १०/१/५) 
- पापी को दुःख ही मिले।

४१) न स्तेयमद्मि ।। (अथर्व० १४/१/५७) 
- मैं चोरी का माल न खाऊँ।

४२) असन्तापं मे हृदयम् ।। (अथर्व० १६/३/६) 
- मेरा हृदय सन्ताप से रहित हो।

४३) उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ।। (ऋ० १०/१३७/१) 
- हे विद्वानो ! पतित को ऊपर उठाओ।

४४) अहं भूमिमददामार्याय ।। (ऋ० ४/२६/२) 
- मैं यह भूमि आर्यों को देता हूँ।

४५) मा भेर्मा संविक्थाऽऊर्जं धत्स्व ।। (यजु:० ६/३५) 
- मत डर ।मत घबरा । धैर्य धारण कर ।

४६) तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।। (१०/८/१) 
- उस ज्येष्ठ ब्रह्म को  हमारा प्रणाम।

४७) नेत् त्वा जहानि -(१३/१/१२) 
- हे प्रभु! मैं तुझे कदापि न छोडूँ।

४८) तव स्मसि -(२०/१५/५) 
- हे प्रभु ! हम तेरे हैं।

४९) न घा त्वद्रिगपवेति मे मनः -(२०/१७/२) 
- मेरा मन तो तुझमें लगा है, तुझसे हटता ही नहीं।

५०) त्वे इत् कामं पुरुहूतं शिश्रय 
- हे प्रभु ! मैंने अपनी कामना को तुझ में ही केन्द्रित कर दिया है।

५१) त्वामीमहे शतक्रतो -(२०/१९/६) 
- हे भगवन् ! हम तेरे आगे हाथ पसारते हैं।

५२) स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि -(२०/६८/६) 
- हम प्रभु की ही शरण पकड़ें।

५३) हवामहे त्वोपगन्तवा उ -(२०/९६/५) 
- हे प्रभु ! हम तेरे समीप पहुँचने के लिए पुकार रहे हैं।

५४) एक एव नमस्यः -(२/२/१) 
- याद रखो,एक ही परमेश्वर है जो नमस्करणीय है।

५५) एको राजा जगतो बभूव - (४/२/२) 
- जगत् का राजा एक ही है।

५६) एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। 
- एक ही परमेश्वर को विप्रजन अनेक नामों से पुकारते हैं।

५७) द्यावाभूमी जनयन् देव एकः - (१३/२/२६) 
- आकाश-भूमि को पैदा करने वाला देव एक ही है।

५८) सखा नो असि परमं च बन्धुः - (५/११/११) 
- तू हमारा सखा और परम बन्धु है।

५९) सद्यः सर्वान् परिपश्यसि - (११/२/२५) 
- तुरन्त तू सबको देख लेता है।

६०) महस्ते सतो महिमा पनस्यते - (२०/५८/३) 
- तुझ महान की महिमा का सर्वत्र गान हो रहा है।

६१) न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन - (१/२०/४) 
- प्रभु के मित्र को कोई मार या जीत नहीं सकता।

६२) द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः - (४/१६/२) 
- कोई दो बैठकर के जो मन्त्रणा करते हैं प्रभु तीसरा होकर उसे जान लेता है।

६३) भीमा इन्द्रस्य हेतयः - (४/३७/८) 
- प्रभु के दण्ड बड़े भयंकर हैं।

६४) यत्र सोमः सद्मित् तत्र भद्रम् - (७/१८/२) 
- जहाँ प्रभु है,वहाँ कल्याण ही कल्याण है।

६५) विष्णोः कर्माणि पश्यत् - (७/१९/१) 
- व्यापक प्रभु के आश्चर्य-जनक कर्मों को देखो।

६६) न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति - (७/२६/६) 
- प्रभु पापी को कभी नहीं बढ़ाते।

६७) सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः 
- प्रभु सबसे पुरातन है,पर आज भी वह नवीन है।

६८) ततः परं नाति पश्यामि किंचन - (अथर्व० १८/२/३२) 
- प्रभु से परे मुझे कुछ नहीं दीखता।

६९) इन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरुणि - (अथर्व० २०/११/६) 
- प्रभु के सब कर्म सत्कर्म के होते हैं।

७०) हत्वी दस्यून् प्रार्यं वर्णमावत् - (अथर्व० २०/११/९) 
- प्रभु दुष्टों का विनाश कर आर्यजनों की रक्षा करता है।

७१) प्रत्यङ् नः सुमना भव - (अथर्व० ३/२०/२) 
- हे प्रभु ! हम पर कृपालु  हो।

७२) यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु - (७/८०/३०) 
- हे प्रभु ! जिस शुभ इच्छा से हम तेरा आह्वान करें, वह पूर्ण हो।

७३) मा नो हिंसीः पितरं मातरं च - (अथर्व० ११/२/२९) 
- प्रभु! हमारे माता-पिता को कष्ट मत दो।

७४) वि द्विषो वि मृधो जहि (अ. १९/१५/१) 
- हमारी द्वेषवृत्तियों और हिंसकवृत्तियों को नष्ट कर।

७५) अग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव - (अथर्व० २०/१३/३) 
- हे प्रभु ! तेरी मैत्री पाकर हम विनाश से बच जायें।

७६) मा त्वायतो जरितुः काममूनयोः - (अथर्व० २०/२१/३) 
- हे प्रभु ! तेरी चाह वाले मुझ भक्त के मनोरथ को अपूर्ण मत रख।

७७) न स्तोतारं निदे करः - (अ० २०/२३/६) 
- मुझ स्तोता को निन्दा का पात्र मत कर।

७८) बहुप्रजा निऋर्तिमा विवेश ।। - (ऋ०१/१६४/32) 
- बहुत सन्तान वाले बहुत कष्ट पाते हैं।

७९) मा ते रिषन्नुपसत्तारोऽग्ने ।। - (अथर्व० २/६/२) 
- प्रभो ! आपके उपासक दुःखी न हों।

८०) कस्तमिन्द्र त्वावसुमा मतर्यों दधर्षति ।। (ऋ०७/३२/१४) 
- ईश्वर भक्त का तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।

 

 

 

                                    

                                      

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