
जानिये वेदों की अमूल्य सूक्तियां यानि अनमोल रत्न
१) न यस्य हन्यते सखा न जायते कदाचन ।। ऋ०१०/१५२/१
- ईश्वर के भक्त को न कोई नष्ट कर सकता है, न जीत सकता है।
२) तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ।। अ० ६/७९/३
- हे प्रभो हम तेरे भक्त हों ।
३) स नः पर्षद् अतिद्विषः ।। अ० ६/३४/१
- ईश्वर हमें द्वेषों से पृथक कर दे।
४) न विन्धेऽस्य स्तुतिम ।। ऋ० १/७/७
- मैं परमात्मा की स्तुति का पार नहीं पाता।
५) यत्र सोमः सदमित्, तत्र भद्रम् ।। अ० ७/१८/२
- जहां परमेश्वर की ज्योति है , वहां सदा ही कल्याण है।
६) महे चन त्वामद्रिवः परा शुक्लाय देयाम् ।। ऋ० ८/१/५
- हे ईश्वर ! मैं तुझे किसी कीमत पर भी न छोड़ूँ।
७) स एष एक एकवदेक एव।। अ० १३/४/२०
- वह ईश्वर एक और सचमुच एक ही है।
८) न रिष्यते त्वावतः सखा ।। ऋ०१/९१/८
- ईश्वर ! आपका मित्र कभी नष्ट नहीं होता।
९)ओ३म् क्रतो स्मर ।। य० ४०/१५
- हे कर्मशील मनुष्य!तू ओ३म् का स्मरण कर।
१०) एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ।। ऋ०६/३६/४
- वह सब लोकों का एक ही स्वामी है।
११) ईशावास्यमिदं सर्वम् ।। य०। ४०/१
- इस सारे जगत् में ईश्वर व्याप्त है।
१२) त्वमस्माकं तव स्मसि ।। ऋ०८/९२/३२
- प्रभु ! तू हमारा है, हम तेरे हैं।
१३) अधा म इन्द्र श्रृणवो हवेमा ।। ऋ०७/२९/३
- हे प्रभु !अब तो मेरी इन प्रार्थनाओं को सुन लो।
१४) तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः ।। अ० १०/८/४४
- आत्मा को जानने पर मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता।
१५) यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।। ऋ०१/१६४/३९
- जो उस ब्रह्म को नहीं जानता, वह वेद से क्या करेगा।
१६) तवेद्धि सख्यम् स्तृतम् ।। ऋ० १/१५/५
- प्रभो! तेरी मैत्री ही सच्ची है।
१७) स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरूषेभ्यः ।। अ० १/३१/४
- सब पशु पक्षी और प्राणीमात्र का भला हो।
१८) स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु ।। अ० १/३१/४
- हमारे माता और पिता सुखी रहें।
१९) रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ताऽनीनशम् ।। अ०७/११५/४
- पुण्य की कमाई मेरे घर की शोभा बढावे और पाप की कमाई को मैं नष्ट कर देता हूं।
२०) मा जीवेभ्यः प्रमदः ।। अ०८/१/७
- प्राणियों की और से असावधान मत हो।
२१) मा प्रगाम पथो वयम् ।। अ० १३/१/५९
- सन्मार्ग से हम विचलित न हों।
२२) मान्तः स्थुर्नो अरातयः ।। ऋ० १०/५७/१
- हमारे अन्दर कंजूसी न हो।
२३) उतो रयिः पृणतो नोपदस्यति ।। ऋ० १०/११७/१
- दानी का दान घटता नहीं।
२४) अक्षैर्मा दीव्यः ।। ऋ० १०/३४/१३
- जुआ मत खेलो।
२५) जाया तप्यते कितवस्य हीना ।। ऋ० १०/३४/१०
- जुएबाज की स्त्री दीन हीन होकर दुःख पाती रहती है।
२६) प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।। अ० १९/६२/१
- सबका कल्याण सोचो, चाहे शूद्र हो, चाहे आर्य।
२७) न स सखा यो न ददाति सख्ये ।। ऋ० १०/११७/४
- वह मित्र ही क्या, जो अपने मित्र को सहायता नहीं देता।
२८) वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।। यजु० १९/४४
हम सर्व सम्पतियों के स्वामी हों।
२९) अनागोहत्या वै भीमा।। अ० १०/१/२९
- निरपराध की हिंसा करना भयंकर है।
३०) क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ।। (ऋ० १/६५/५)
- प्रातः जागने वाला प्रबुद्ध होता है। उसे सब स्नेह करते हैं।
३१) (सोम) न रिष्यत्त्वावतः सखा ।। (ऋ० १/९१/८)
- हे सोम (परमात्मा)! तेरा सखा कभी दुःखी नहीं होता।
३२) त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ।। (ऋ० १/९१/२२)
- अपने ज्ञान के प्रकाश से हमारे अज्ञान को नष्ट करो।
३३) पितेव नः श्रृणुहि हूयमानः ।। (ऋ० १/१०४/९)
- पुकारे जाने पर पिता की भाँति हमारी टेर सुनो।
३४) अघृणे न ते सख्यमपह्युवे ।। (ऋ० १/१३८/४)
- हे प्रभो! तेरी मित्रता से इन्कार नहीं करता।
३५) दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ।। (ऋ० १/१४७/३)
- दबाने वाले शत्रु उपासक को नहीं दबा सकते।
३६) मा श्रुतेन वि राधिषि ।। (अथर्व० १/१/४)
हम सुने हुए वेदोपदेश के विरुद्ध
आचरण न करें ।
३७) अपृणन्तमभि संयन्तु शोकाः ।। (ऋ० १/१२५/७)
- लोकोपकारहीन कृपण को शोक घेर लेता है।
३८) मा प्र गाम पथो वयम् ।। (ऋ० १०/५७/१)
- हम वैदिक मार्ग से न हटें ।
३९) मात्र तिष्ठः पराङ् मनाः ।। (अथर्व० ८/१/९)
- इस संसार में उदासीन मन से मत रहो।
४०) अघमस्त्वघकृते ।। (अथर्व० १०/१/५)
- पापी को दुःख ही मिले।
४१) न स्तेयमद्मि ।। (अथर्व० १४/१/५७)
- मैं चोरी का माल न खाऊँ।
४२) असन्तापं मे हृदयम् ।। (अथर्व० १६/३/६)
- मेरा हृदय सन्ताप से रहित हो।
४३) उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ।। (ऋ० १०/१३७/१)
- हे विद्वानो ! पतित को ऊपर उठाओ।
४४) अहं भूमिमददामार्याय ।। (ऋ० ४/२६/२)
- मैं यह भूमि आर्यों को देता हूँ।
४५) मा भेर्मा संविक्थाऽऊर्जं धत्स्व ।। (यजु:० ६/३५)
- मत डर ।मत घबरा । धैर्य धारण कर ।
४६) तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।। (१०/८/१)
- उस ज्येष्ठ ब्रह्म को हमारा प्रणाम।
४७) नेत् त्वा जहानि -(१३/१/१२)
- हे प्रभु! मैं तुझे कदापि न छोडूँ।
४८) तव स्मसि -(२०/१५/५)
- हे प्रभु ! हम तेरे हैं।
४९) न घा त्वद्रिगपवेति मे मनः -(२०/१७/२)
- मेरा मन तो तुझमें लगा है, तुझसे हटता ही नहीं।
५०) त्वे इत् कामं पुरुहूतं शिश्रय
- हे प्रभु ! मैंने अपनी कामना को तुझ में ही केन्द्रित कर दिया है।
५१) त्वामीमहे शतक्रतो -(२०/१९/६)
- हे भगवन् ! हम तेरे आगे हाथ पसारते हैं।
५२) स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि -(२०/६८/६)
- हम प्रभु की ही शरण पकड़ें।
५३) हवामहे त्वोपगन्तवा उ -(२०/९६/५)
- हे प्रभु ! हम तेरे समीप पहुँचने के लिए पुकार रहे हैं।
५४) एक एव नमस्यः -(२/२/१)
- याद रखो,एक ही परमेश्वर है जो नमस्करणीय है।
५५) एको राजा जगतो बभूव - (४/२/२)
- जगत् का राजा एक ही है।
५६) एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
- एक ही परमेश्वर को विप्रजन अनेक नामों से पुकारते हैं।
५७) द्यावाभूमी जनयन् देव एकः - (१३/२/२६)
- आकाश-भूमि को पैदा करने वाला देव एक ही है।
५८) सखा नो असि परमं च बन्धुः - (५/११/११)
- तू हमारा सखा और परम बन्धु है।
५९) सद्यः सर्वान् परिपश्यसि - (११/२/२५)
- तुरन्त तू सबको देख लेता है।
६०) महस्ते सतो महिमा पनस्यते - (२०/५८/३)
- तुझ महान की महिमा का सर्वत्र गान हो रहा है।
६१) न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन - (१/२०/४)
- प्रभु के मित्र को कोई मार या जीत नहीं सकता।
६२) द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः - (४/१६/२)
- कोई दो बैठकर के जो मन्त्रणा करते हैं प्रभु तीसरा होकर उसे जान लेता है।
६३) भीमा इन्द्रस्य हेतयः - (४/३७/८)
- प्रभु के दण्ड बड़े भयंकर हैं।
६४) यत्र सोमः सद्मित् तत्र भद्रम् - (७/१८/२)
- जहाँ प्रभु है,वहाँ कल्याण ही कल्याण है।
६५) विष्णोः कर्माणि पश्यत् - (७/१९/१)
- व्यापक प्रभु के आश्चर्य-जनक कर्मों को देखो।
६६) न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति - (७/२६/६)
- प्रभु पापी को कभी नहीं बढ़ाते।
६७) सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः
- प्रभु सबसे पुरातन है,पर आज भी वह नवीन है।
६८) ततः परं नाति पश्यामि किंचन - (अथर्व० १८/२/३२)
- प्रभु से परे मुझे कुछ नहीं दीखता।
६९) इन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरुणि - (अथर्व० २०/११/६)
- प्रभु के सब कर्म सत्कर्म के होते हैं।
७०) हत्वी दस्यून् प्रार्यं वर्णमावत् - (अथर्व० २०/११/९)
- प्रभु दुष्टों का विनाश कर आर्यजनों की रक्षा करता है।
७१) प्रत्यङ् नः सुमना भव - (अथर्व० ३/२०/२)
- हे प्रभु ! हम पर कृपालु हो।
७२) यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु - (७/८०/३०)
- हे प्रभु ! जिस शुभ इच्छा से हम तेरा आह्वान करें, वह पूर्ण हो।
७३) मा नो हिंसीः पितरं मातरं च - (अथर्व० ११/२/२९)
- प्रभु! हमारे माता-पिता को कष्ट मत दो।
७४) वि द्विषो वि मृधो जहि (अ. १९/१५/१)
- हमारी द्वेषवृत्तियों और हिंसकवृत्तियों को नष्ट कर।
७५) अग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव - (अथर्व० २०/१३/३)
- हे प्रभु ! तेरी मैत्री पाकर हम विनाश से बच जायें।
७६) मा त्वायतो जरितुः काममूनयोः - (अथर्व० २०/२१/३)
- हे प्रभु ! तेरी चाह वाले मुझ भक्त के मनोरथ को अपूर्ण मत रख।
७७) न स्तोतारं निदे करः - (अ० २०/२३/६)
- मुझ स्तोता को निन्दा का पात्र मत कर।
७८) बहुप्रजा निऋर्तिमा विवेश ।। - (ऋ०१/१६४/32)
- बहुत सन्तान वाले बहुत कष्ट पाते हैं।
७९) मा ते रिषन्नुपसत्तारोऽग्ने ।। - (अथर्व० २/६/२)
- प्रभो ! आपके उपासक दुःखी न हों।
८०) कस्तमिन्द्र त्वावसुमा मतर्यों दधर्षति ।। (ऋ०७/३२/१४)
- ईश्वर भक्त का तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।
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