Bhartiya Parmapara

प्रकृति संरक्षण ही जीवन बीमा है – पेड़ बचाएं, पृथ्वी बचाएं

प्रकृति संरक्षण जीवन बीमा है

आप लोगों में से कितनों ने अपना जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा करवाया है? और क्या गारंटी है कि वो आपके लिए हितकर होगा। यदि बीमा को भोगने से पहले धरती और पूरे जीव जगत का अस्तित्व समाप्त हो गया तो? मैं एक वाक्य में कहूंगा कि "प्रकृति संरक्षण जीवन बीमा है”

ईश्वर द्वारा रचित इस पावन सृष्टि में सभी जीव एवं तत्व अपने अपने अस्तित्व को अपने भीतर समेटे हुए हैं। कोई भी प्राकृतिक रूप से अपने अधिकारों से वंचित ना हो प्रकृति का ध्येय है। इस पावन धरा पर जो सबसे अमूल्य रत्न है वह है, पादप जगत या पेड़ पौधे जो की एकमात्र हमारी जीवन का स्रोत है।

अगर तथ्यों को देखा जाए तो दक्षिण अमेरिका के 60 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला अमेजन का वर्षा वन विश्व का लगभग 15% ऑक्सीजन का स्रोत है। लेकिन बढ़ती आधुनिकता और मानवता के हर ह्रास में प्रकृति निरंतर दोहन को झेल रही है।

अगर 1988 से अब तक देखा जाए तो वर्षा वन के औसतन 10000 एकड़ की वृक्षों की कटाई प्रतिदिन हो रही है, और यदि यूँ ही चलता रहा तो 2030 तक अमेजन के लगभग 27% वृक्ष समाप्त हो जाएंगे जो जीव जगत के लिए बहुत घातक होगा। अगर भारत की बात की जाए तो लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले यहां के वन, भारतीय भूमि के 21 फ़ीसदी का आंकड़ा रखते हैं। पर इन सब तथ्यों को जानकर क्या होगा जब तक हम इसका उचित समाधान नहीं निकालेंगे।

भारतीय दशाओं को देखा जाए तो जो सबसे प्रभावित है वह है ग्रामीण क्षेत्र, आजकल निरंतर बढ़ते औद्योगीकरण वाले युग में ग्रामीण क्षेत्रों के वृक्षों की कटाई की जा रही है। उससे भी बड़ी दुखद विडंबना यह है कि, अवैध उत्खनन के चलते लोग अपने खेतों की मिट्टी बेच देते हैं जिससे पेड़ पौधों की हानि के साथ-साथ भूमि अपरदन की समस्या भी बढ़ती जा रही है।

अगर माननीय स्तर से सोचा जाए तो यह पावन धरा के साथ दुष्कर्म ही होगा यह हरकतें कहां तक जायज है? हम मनुष्य को इसलिए श्रेष्ठ बनाया गया जिससे प्रकृति के होने वाली अनुचित व्यवस्थाओं को हम सुधार सकें। पर हम तो पृथ्वी का शोषण करने में लगे हैं। किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए औद्योगीकरण जरूरी है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि मानव जाति अति ही कर दे, औद्योगीकरण के आड़ में ना जाने कितने ईंट भट्ठे बगैर उचित प्रावधानों के संचालित हो रहे हैं, जिसकी अहम भूमिका है पृथ्वी के दोहन में। ऐसे ईट भट्टे बगैर प्रदूषण प्रबंधन की व्यवस्था के धरती की छाती पर बेखौफ होकर धधक रहे हैं, और रही अवैध खनन करवाकर मिट्टी का व्यापार करते हैं जो कि वृक्षों के भी हानि का कारण बनते हैं।

अगर एक सत्य यथार्थ का उदाहरण देना हो तो मैं अपने ही गांव का उदाहरण देता हूं जिसके चारों तरफ चार-पांच ईट भट्ठे हैं, जिनके मुख से निरंतर मृत्यु वायु निकल रही है। और आए दिन गांव में उत्खनन जारी है, पेड़ कट रहे हैं। मैं वह व्यक्ति हूं जो अपनी आंखों के सामने स्वर्ग से हरी भरी भूमि और गांव को एक खंडहर व नरक बनते हुए देख रहा हूं। इन सबका कारण मेरे गांव के कई लोग हैं अगर वह अपनी मिट्टी ना बेचें तो कोई भी जबरदस्ती उनका खनन नहीं कर सकता।

                                

                                  

परंतु इसे ही मानवता की क्षीणता कहते हैं। पर इन दुर्दशा पर किसी भी व्यक्ति की दृष्टि नहीं जा रही विकास के नाम पर हम इतनी भट्ठे बनाकर क्या ही करेंगे जब उसके लिए सही भूमि और जीव जगत ही नहीं रहेगा। यह एक गांव के लिए कितना अन्याय पूर्ण है कि उसके चारों ओर चार से पांच ईट भट्ठे हो और पूरी भूमि खंडहर हो चुकी हो। जिसके प्रदूषण से ना जाने कितनी बीमारियां फैल रही हैं और फसलों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है।

अगर इन उद्योगों को स्थापित ही करना हो तो उन्हें निर्जन या कम जन वाले क्षेत्र में लगाया जाना चाहिए वह भी सीमित संख्या में। जीव जगत के लिए जो सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए वह है प्रकृति का संरक्षण। पर इन सब पर ना ही आम जनमानस की दृष्टि जाती है ना ही सरकार या शासन प्रशासन की और जाएगी भी क्यों उद्योग के मालिक तो बड़े-बड़े उद्योगपति हैं, जो चुनाव में राजनेताओं को पैसे देते हैं, अतः उनके खिलाफ बोलना देशद्रोह माना जाता है। पर ऐसा कब तक चलेगा? इस कटु सत्य को दबाना होगा।

मुझे नहीं लगता कि कभी ऐसा नियम भी बनाया जायेगा कि पहले वृक्षारोपण करो फिर ईंट भट्ठे या किसी भी उद्योग का लाइसेंस मिलेगा। यदि ऐसा होता है तो यह पृथ्वी और प्रकृति के संरक्षण और हित में अहम कदम होगा।

हर क्षेत्र में जहां जहां भी प्राकृतिक दोहन हो रहा है उसकी जिम्मेदार मानव जाति ही है। अंधाधुंध पेड़ों की कटाई से और बढ़ते प्रदूषण से वैश्विक उष्णता (Global Warming) में वृद्धि हो रही है जिसके कारण ओजोन का क्षरण भी हो रहा है और नकारात्मक तथा पराबैंगनी किरणें हमें कई रोगों जैसे चर्म रोग नेत्र रोग कैंसर इत्यादि से ग्रसित कर रहे हैं तो वहीं फसलों पर भी इसका दुष्प्रभाव देखा जा सकता है। बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण बड़े-बड़े ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ जैसी समस्याएं आती हैं जिनके कारण कई जान माल की हानि होती हैं, अंततः देखा जाए तो हम हम मनुष्य अपने ही कृत्यों का फल पाते हैं। पर ना जाने हमको कुपित मानव जाति कब समझेंगे अगर एक छोटे स्तर से भी शुरू किया जाए तो भी हम धरती को त्रास से बचा सकते हैं।

वृक्षारोपण ही एकमात्र समाधान है प्रकृति के संरक्षण का हम वृक्ष लगाने के लिए कई बहाने भी ढूंढ सकते हैं अपनी छोटी-छोटी खुशियों में यदि व्यक्ति एक वृक्ष ही लगा दे तो वह प्रकृति को बहुत बड़ा उपहार दे रहा होगा।

                                

                                  

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |