Bhartiya Parmapara

मेरे गाँव की परिकल्पना – विकास और विनाश पर एक काव्यात्मक चिंतन

घायल पड़ी औरत को देखकर मैंने पूछा- अरे! तुम कौन? ऐसी दुर्दशा किसने की?उसने अपना नाम धरती बताते हुए कहा - "तुम मेरी छाती पर खड़े होकर मुझे ही भूल गए?“ यह एक प्रश्न था सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि समस्त मनुष्य और मनुष्यता के लिए।

तब तो यह प्रश्न सभी से पूछा जाना चाहिए यह सोचकर मैं अपने गांव के एक व्यक्ति के पास गया और बोला -

"अरे! इतना बड़ा कब्र, किस लिए? 
क्या किसी दैत्य की मृत्यु हुई है? 
या सब पहले से खोद रहे हैं, अपना अपना कब्र?

नहीं साहब - मेरा गाँव विकास कर रहा है, हम लोग पहले मिट्टी खोदेंगे, 
या यूँ कहिए कि - वसुधा को बड़े बड़े घाव देंगे। 
फिर उस मिट्टी की ईंटे बनाएंगे, उन ईंटों से बनेंगे 
मस्जिद, शिवालय, सचिवालय, मदिरालय 
इमारत, घर और एक नया पुल। 
पुल किसलिए होगा? 
पुल के द्वारा हम पार करेंगे, विशाल गड्ढों को। 
पर पुल तो सिर्फ नदियों के ऊपर 
सुन्दर दिखती है, या फिर प्राकृतिक खाइयों के। 
आखिर ईंटें मिट्टी से ही बनी है, देखना कहीं रूठ ना जाए 
धरती से अलग होने के कारण। 
और तुम्हारे कृत्रिम सुंदरीकरण का पुल टूट ना जाए, जरा सँभलना! 
तुम भूल गए क्या? 
पृथ्वी की खुदाई सिर्फ नदियों, नहरों 
और मृत देह को दफनाने के लिए जायज थी, 
इसलिए क्योंकि, मिट्टी अगर मिट्टी को 
ना स्वीकारेगी तो वह कहाँ जाएगी। 
पर हमारे कल्याण के लिए 
उसने अन्य घावों को सहना स्वीकार किया। 
वो तो विशाल हृदय वाली है, तो क्या तुम ऐसे ही 
उसके देह को घाव देते रहोगे?

                             

                               

ये जहर उगलने वाली चीज क्या है? 
ये ईट भट्ठा, जो आधार है, 
पृथ्वी के सुंदरीकरण का।

कितने है गाँव में?  
कितने है गाँव में? 
चारों दिशाओं में चार  
ज्यादा भट्ठे, ज्यादा ईंटें, 
और विकास भी ज्यादा।

भट्ठे के आस पास के वृक्ष कहाँ है? 
क्या शासन ने नियम नहीं बनाया? 
कि पहले वृक्षारोपण, फिर लाइसेंस।। 
फेल है साहब! सब फेल है।

फिर तुमने आकाश को क्या समझा है? 
की वो शिव की भा़ँति पी जाएगा, 
सारी सृष्टि के हिस्से का जहर,तुमने वसुधा को भी घाव दिया और 
उसके प्रियतम को भी विष पिला रहे हो। 
खेद है! मनुजता पर।

ये मत भूलना की ये विष और  
उस घाव में जन्मे कीड़े, एक दिन 
आ जाएंगे तुम्हारी थाली में। 
अरे देखो! 
वह यमदूत जैसा दिखने वाला ट्रैक्टर ट्राली 
धूल उड़ा गया, विद्यालय जाते बच्चे पर, 
मैली हो गई उसकी सफेद कमीज़। 
तो क्या ऐसी ही है तुम्हारी 
सुन्दर गाँव की परिकल्पना?"


यह शाब्दिक चित्र है मेरे गांव के समसामयिक परिस्थितियों का जिसे मैंने ऊपर कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। ना जाने कितने गांव बर्बाद हो रहे हैं,और वसुधा लीन है दुखद रूदन में।

आज के आधुनिकीकरण के युग में हम सब विकास के नाम पर प्राकृतिक चीजों का लगातार दोहन कर रहे हैं जो एक दिन विनाशकारी होगा। पर हमें इसकी चिंता कहां है, लगातार ईट भट्टों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धरती की छाती पर बेखौफ होकर धधक रहे हैं। कुछ लाइसेंस के कुछ बगैर लाइसेंस के। पर क्या "ईसी" लाइसेंस धरती और आकाश के घावों का मरहम है?

आज के समय में पैसा फेंको लाइसेंस पाओ। प्रकृति के लिए हमारे हृदय में कोई अनुभूति नहीं।

शासन यदि यह नियम बना दें कि पहले सैकड़ों वृक्षारोपण करना होगा उसके बाद लाइसेंस मिलेगा, तो शायद धरती और आकाश का दर्द कुछ हद तक कम हो जाए। लेकिन वृक्षारोपण के लिए स्थान भी तो चाहिए, कहां करें? लगातार अवैध खनन जारी है उपजाऊ खेतों को विशाल कब्र में तब्दील किया जा रहा है। इतने बड़े बड़े गांव सहने के बाद भी धरती शांत है, सहनशील है। पर ऐसा ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाला, एक दिन धरती भी खो देगी अपना संयम और सब उथल-पुथल हो जाएगा। 
यह सही है कि एक विकसित राष्ट्र निर्माण के लिए इन सब का होना अनिवार्य है; पर इतनी अति करके प्रकृति के छाती में बार-बार वार करना कहां तक जायज है?

                             

                               

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |