Bhartiya Parmapara

भविष्य अपना क्या है? | तकनीक और मोबाइल लत का युवाओं पर असर

भविष्य अपना क्या है ?

हम जो आजकल विज्ञान की अद्भुत शोध का उपयोग कर के जीवन को आसान बनाने की कोशिश कर रहे हैं क्या वह सिर्फ हमारी मदद ही करते हैं या हमारा वह नुकसान कर रहा हैं जो पीढ़ियों तक भरपाई नहीं हो पाएगी। जिसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। कितने जिम्मेदार हैं ये तो भविष्य ही बताएगा। वैसे तो अगर पुराने जमाने में आई नई शोधों की बात करें तो – जब स्टील के बर्तनों का नया उपयोग शुरू हुआ था तब लोग उसे हृदय रोग के हमले के साथ जोड़ दिया करते थे। तब हम छोटे छोटे थे, लोग उसमें खाना नहीं पकाने की सलाह देते थे क्योंकि उसमें बना खाना खाने से हृदय रोग से ग्रस्त हो जाने की संभावना बढ़ जाती हैं। वैसे ही खाना बनाने वाली गैस का उपयोग नया नया शुरू हुआ था तो उसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता था।

हम छोटे थे तो रेडियो सुने जाने के लिए भी कुछ नियम थे जिसमें हम कुछ कार्यक्रम ही सुन सकते थे। जब कॉलेज में आये तो टी वी देखने में भी कुछ नियम थे और कुछ ही कार्यक्रम देखने की इजाजत मिलती थी। वैसे भी दूरदर्शन का प्रसारण ज्यादातर शाम के वक्त ही हुआ करता था जो आज 24 घंटे और वह भी ढेरों चैनलों के साथ हो रहा है। ऊपर से नेटफ्लिक्स जैसे प्लेटफार्म पर दिखाए जाने वाले प्रोग्राम जो अनगिनत हैं। जिससे बच्चों और युवाओं का मन उसी में रमा रहता हैं कोई भी अपने विकास के बारे में सोचने से ज्यादा इन्हीं में उलझे रहते हैं।

वैसे ही अब मोबाइल फोन के बारे में बहुत सारी बातें सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिल रहें हैं। बड़ों के लिए हानिकारक तो हैं ही किंतु बच्चों के लिए तो ये अत्यंत हानिकारक हैं। इससे बच्चों को लत लग जाती हैं और उनको कोई दूसरी चीज अच्छी नहीं लगती, मोबाइल में ही मन अटका रहता हैं। खासकर जब वे छह साल के या उससे छोटे हैं। "Under Standing Your Child’s Brain" नाम की किताब में स्टडी करके इस बात को बताया गया हैं।

जब बच्चें रोते हैं, कई प्रकार की जिद्द करते हैं, उनके माता पिता के प्यार की जरूरत हैं तब समय के अभाव में वे उन्हे मोबाइल फोन पकड़ा देते हैं, जिससे वे बहल तो जातें हैं, किंतु ये बहलाना बहुत महंगा पड़ सकता हैं। छोटे बच्चे जब मोबाइल देखते हैं तो वे जो कुछ देखता हैं वह उसे शांति से खाना खा लेते हैं या शांत बैठे रहते है किंतु बड़े होने पर उनकी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम होती जाती हैं। उनका ध्यान पढ़ाई से ज्यादा मोबाइल ने लगा रहता है जिससे उनको काफी लत जाती हैं जैसे नशे की आदत होती हैं। पढ़ाई के समय भी उनका ध्यान उन्ही चीजों में उलझा रहता है, एकाग्रता की कमी रहने से पढ़ाई में ध्यान काम रहता है।

तंबाकू या शराब के नशे से तो शरीर को तकलीफ होती हैं किंतु इस नशे से दिमाग, हाथ की नाजुक नसें और आँखों का खराब होने का खतरा सदैव रहता हैं।जिसमें दिमाग पर शराब के नशे जितना या नींद की गोली जितनी असर करतें हैं। जब आपका बच्चा सोता नहीं हैं तब क्या उसे आप सोने के लिए ली जानी वाली गोली दे सकते हैं क्या? कोई भी अभिभावक अपने बच्चे ऐसी गोली नहीं दे पाएंगे। लेकिन हाथ में मोबाइल दे कर ये काम हम करते हैं। कईं बार तो सुनने को मिलता हैं कि चल चुप तो हो जायेगा दे दो। जो उनके लिए नए बहुत ही हानिकारक सिद्ध हो सकता है।  
 

                              

                                

कुछ बड़े होने पर उनको कोई न कोई गेम की लत लग जाती हैं जिसने अगर कुछ पैसे लगाने पड़ते हो तो वे माता पिता से चुराने से भी पीछे नहीं रहते। अपने देश के 41% युवा 20 साल के आसपास की उम्र के हैं। जिन्हें ऐसी लत लगने से उनके भविष्य अंधकारमय हो जाने की पूरी संभावना हैं। जिस उम्र में बच्चे अपने भविष्य के सपने देखता है उस उम्र में मोबाइल पर रील बना कर डालने के शौक में फालतू के स्टंट कर के जिंदगी को जोखिम में डाल देते हैं। अगर देश 41% नागरिक ऐसी लत में उलझ गए तो देश का भविष्य क्या हो सकता है ये बात सोचनीय बन जाती हैं।  
 

कई बार अभिभावकों को अभिमान होता है कि उनके बच्चे को मोबाइल के कितने फीचर्स का पता हैं, वे वीडियो बना कर फेसबुक या इंस्टाग्राम पर डाल भी देते हैं और इतनी छोटी उम्र के बच्चे की काबिलियत सिर्फ मोबाइल चलाना ही गिनी जाती हैं। पहले उनसे राइम्स आदि बुलाकर माता पिता खुश होते थे। बच्चे सेल्फियां ले कर अपने माता पिता को दिखा खुश करने की कोशिश करते हैं। इस रील्स बनाने की लत तो बिहार के गंगा पथ जो युवक युवतियां स्टंट कर के रील्स बनाते हैं जो वहां यातायात में बाधक बन रहे हैं। आजकल पुलिस के लिए सिरदर्द बना हुआ है, उसे रोकने के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाने पड़ रहे हैं। जिससे ऐसे रील्स बनाने की कोशिश करें उन्हें पकड़ा जाएं। 
 

पहले के जमाने में माताएं बच्चों के स्वास्थ्य का ध्यान रखती थी। उनकी शरीर और बालों की मालिश किया करती थी, वही समय होता था जब बच्चा मां के करीब हुआ करते थे, अपने मन की बात दिल खोल कर बता दिया करते थे। जो अब मुश्किल से देखना मिलते हैं।

कुछ देशों में तो उम्र के हिसाब से स्क्रीन टाइम का कानून बना है, जिसकी अपने देश में भी आवश्यकता दिख रहीं हैं। 
देश के बालधन और युवाधन को इन लतों से बचाना सभी नागरिकों की नैतिक फर्ज बनता हैं।

                              

                                

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