
"लगता है, तुम फिर मुंगेरीलाल की तरह सपने देखने लगे हो, हरिया" — कहते हुए श्याम मुस्कुराने लगा। "हर साल यही क्रम चलता है तुम्हारा। मृग लगते नहीं कि तुम्हारे सपनों की डोर तो जैसे आसमान छूने लगती है। अरे! जो बादल गरजते हैं, वे बरसते नहीं — समझ लेना। इतने ख़्वाब देखना और फिर मुँह के बल गिरना तुम्हें तो आदत पड़ गई है जैसे।"
"तुम्हारी कोई दुश्मनी है क्या, श्याम, इन्द्र देव से? जब-तब बरसात को लेकर उलाहने देते हो। महँगा-सस्ता जैसा भी हो, दो समय का भोजन तो इसी खेती की बदौलत कर तो रहे हो। मैं तो प्रकृति का पूजारी हूँ, श्याम, और इसीलिए सपने भी देखता हूँ। देखो! ज़रूर देखो, पर फिर सपने टूटें तो दिल छोटा न करना। मुझे विश्वास है, श्याम, मेरे सपने इस बार टूटेंगे नहीं। और आज तक जो टूटते आए हैं न, उसके ज़िम्मेदार हम ही हैं।"
"ओहो! तुम तो ज्ञान भरी बातें करने लगे हो, हरिया।"
"बताओ तो ज़रा, हम बेबस, लाचार किसानों का क्या दोष है?"
"हमें प्रकृति से बहुत उम्मीदें लगी रहती हैं, किंतु हम प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ करते हैं, वह हमें दिखाई नहीं देता। हम जिसे जैसा देंगे, वहीँ तो पाएँगे। इतना भीषण ताप, जिसे हम सह नहीं पाते, यह हमारे ही द्वारा प्रकृति पर किए गए आघात का प्रतिफल है।"
"सीधे-सीधे कहो, तुम कहना क्या चाहते हो?"
"तो सुनो श्याम। कितने हरे-भरे पेड़-पौधे लगे थे — पीपल, नीम के बड़े-बड़े पेड़ — कितनी शीतल पुरवाई देते थे, जिनकी छाया में मन को सुकून मिलता था। पर तुमने तो वे पेड़ ही काट दिए और वहाँ अपना मकान बना लिया।"
"हरिया, मैंने मेरे ही प्लॉट पर मकान बनवाया, कोई गुनाह तो नहीं किया मेरे भाई।"
"माना, प्लॉट तुम्हारा था, पर पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाते हुए तुम्हारा हृदय ज़रा भी नहीं पसीजा। यह तो एक तुम्हारी बात हुई, न जाने कितने ही लोग ऐसा करते हैं। तुम्हें मकान बनवाना था, सही है। पर क्या तुमने जितने पेड़ तोड़े, उतने फिर से आस-पास कहीं लगाए? नहीं लगाए। फिर हम क्या बरखा रानी से उम्मीद करें?" — कहते हुए हरिया घर के लिए निकला।
कुछ ही देर में घनघोर काले बादलों से निकल बरखा रानी धरती पर छम-छम नर्तन करने लगी।
श्याम ने पचास पौधे इकट्ठे किए और हरिया को आवाज लगाकर बुला लिया। बरसात में दोनों ने मिलकर खूब पेड़-पौधे लगाए। अबकी बार प्रकृति ने हरिया की पुकार सुन ली थी और उसके सपने आकार लेने लगे थे।
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