Bhartiya Parmapara

वर्तमान दौर में बदलता प्रेम का स्वरूप – एक विचारणीय लेख

दिल में चाहत यूँ सजे, लेकर अनुपम भाव। 
आपस  में विश्वास हो, रहे  नहीं  हिय घाव।।

वर्तमान परिदृश्य में प्रेम की परिभाषा जिस गति से बदल रही है, वह चिन्तनीय है। प्रेम में एक-दूसरे को आहत करने का भाव जहाँ पनपता है, वह वास्तविक प्रेम है ही नहीं, वह मात्र दिखावा है। बाह्य आकर्षण को प्रेम की उपमा से सम्बोधित करना उचित नहीं, यह तो दो आत्मा के परस्पर मिलन का प्राकृतिक रूप है, जिसमें स्वार्थ की भावना का कोई स्थान नहीं रहता। प्रेम के पुष्प पुरातन काल से पल्लवित होते आ रहे हैं, उनका स्वरूप बिल्कुल पवित्र होना चाहिए। प्रेम जीवन‌ का मधुर संगीत है, इसे गलत ढंग से हासिल करने की ज़िद से बेहतर होगा उसे अपने भीतर महसूस किया जाए। प्रेम को अपनी शक्ति बनाकर प्रगति की राह चलते हुए योग्यता हासिल की जाए। साथी की खुशी में ही अपनी खुशी ढूँढ़नी होगी तभी प्रेम सार्थक होगा।

प्रेम के साथ विश्वास होता है, पूर्ण समर्पित भाव होते हैं, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान होता है, किन्तु आज के दौर में खुशी देने से अधिक पाने की इच्छा बलवती होती जा रही है। फिर उसके लिए चाहे जो रास्ते अपनाने पड़े इसीलिए आजकल कभी तेज़ाब के मामले सामने आते है, तो कभी दुष्कर्म के, कभी मौत के घाट उतारने तक की खबरें हम सुनते है, कभी पारिवारिक सदस्यों की हत्या करने जैसी घटनाएँ हो जाती है, ऐसी शर्मसार घटनाएँ रूकने का नाम ही नहीं ले रही, एक घटना की आग बुझे उससे पहले दूसरी दर्दनाक घटना सामने आ जाती है, प्रेम का यह घिनौना स्वरूप समझ से परे है।

आजकल प्रेम की डोर की मजबूती आर्थिक स्थिति पर निर्भर होने लगी है, प्रेम शर्तों के आधार पर टिका रहता है। प्रेम, प्रेम न‌ रहकर सौदेबाजी करना हो गया है, क्योंकि यहाँ भावनाएँ गौण हो गई है और उसकी जगह महँगे उपहारों की महत्ता बढ़ गई है। तभी बड़े धूमधाम से विविध डे मनाने का प्रचलन जोरों पर है। रोज डे, टेडी डे, चॉकलेट डे, वेलेंटाइन डे और भी न जाने कितने ही डे मनाए जाते हैं। वास्तविक प्रेम तो हर पल महसूस किया जाना चाहिए, वह किसी डे का मोहताज नहीं होता। पाश्चात्य संस्कृति ने हमारी संस्कृति को विनाश के कगार तक पहुँचा दिया है। केवल वेलेंटाइन डे पर प्रेम को अभिव्यक्त करना....! क्या प्रेम का स्वरूप इतना संकुचित है...!

विविध डे प्रेम की जगह अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं। देर रात तक पार्टियों में रहना, घूमना-फिरना अभिभावकों से झूठ बोलकर घर से बाहर रहना यह उचित नहीं है, इस तरह की आजादी से सर्वनाश होते देर नहीं लगती। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को ग़लत शिक्षा नहीं देते किन्तु बच्चों को पाश्चात्य संस्कृति इतनी प्रभावित कर रही है कि वह आसानी से अभिभावकों के साथ झूठ बोलकर उन्हें अँधेरे में रखते है। युवतियाँ भी बाह्य आकर्षण के वशीभूत होकर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है।

प्रेम अगर सच्चा हो तो साथी अपने प्रेमी पर किसी तरह की ऑंच नहीं आने देते। उनका चरित्र हनन करने की तो कल्पना भी नहीं कर सकते, किन्तु आजकल यही सब हो रहा है और इस आग में घी डालने का काम कर रहा है सोशल मीडिया....!

बिना जॉंचे-परखे किसी अनजान पर इतना विश्वास करना घातक है। मोबाइल लैपटॉप पर घण्टों अपना अमूल्य समय नष्ट करना और धीरे-धीरे इस मायावी जाल में स्वयं को फँसा लेना यह बुद्धिमता नहीं है, इससे युवा वर्ग की उन्नति में भी बाधा आती है और कालान्तर से वह स्वयं को अवसाद के कटघरे में पाते हैं। भौतिक सम्पदा के आधार पर बनाई गई प्रेम की बुनियाद को ढहने में अधिक समय नहीं लगता।

"प्रेम जीवन का आधार है, खुशी है किन्तु इसे प्राप्त करने से पहले हर चुनौती को सहर्ष स्वीकार करने की मानसिकता होनी चाहिए न कि विनाश की प्रवृत्ति, यह कोई पूर्व नियोजित योजना नहीं है, कुदरत का अनुपम उपहार है, इसे समर्पण और सहनशीलता के भाव से संजोए।”

                             

                               

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