
हमारे लोक पर्व - सांझी माता या चंदा तरैया
सांझी माता का पर्व भाद्रपद की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास की अमावस्या तक मनाया जाता है। यह पर्व विशेषकर कुंवारी कन्याओं का होता है और पूरे पितृपक्ष के 16 दिनों तक चलता है। सांझी माता का पर्व विशेष रूप से ब्रज क्षेत्र, राजस्थान, बुंदेलखंड, गुजरात, मालवा, और निमाड़ में मनाया जाता है। ब्रज क्षेत्र में इसे चंदा तरैया के नाम से भी जाना जाता है।
ब्रज क्षेत्र के आगरा, मथुरा, बटेश्वर और आगरा जिले के बाह तहसील में चंदा तरैया कहलाने का कारण यहां की ब्रज भाषा है।
कुंवारी कन्याएं 16 दिनों तक घर के बाहर दरवाजे के पास वाली दीवार पर या घर के आंगन की दीवार पर गोबर से विभिन्न आकृतियाँ बनाती हैं। हर दिन अलग-अलग आकृतियाँ बनाई जाती हैं, लेकिन सूरज देवता, चंद्रमा देवता और सात तारे रोज बनाए जाते हैं।
कुंवारी कन्या पहले घर के दरवाजे के पास वाली दीवार को चूने से पोत कर पवित्र करती है। उसके बाद उसे गाय के गोबर से लीपती है। उतना ही स्थान लीपती है जितने स्थान पर सांझी माता एवं अन्य चीजें बनाती हैं। जिस स्थान को लिखती है ऊपर एक कोने में सूरज देवता तथा दूसरे कोने में चंद्रमा बनाती हैं बीच में सात तारे रखती हैं साथ ही बीचोबीच में सात स्वास्तिक बनाकर उन्हें आपस में जोड़ती हैं उसे "सत सतिया" कहते हैं। फिर उसे रोली हल्दी आटा चूड़ी के टूटे हुए टुकड़े मोती चमकने पन्नी आदि से सजाती हैं तथा दूसरे दिन जो दीवाल पर गाय के गोबर से जो वस्तुएं बनाई हैं उन्हें निकाल कर उस सूखे गोबर को इकट्ठा कर लेती हैं दूसरे दिन फिर दीवाल को गोबर से लीपती है तथा दूसरी आकृति बनाते हैं। जैसे चौपड़ शंख 8 कली का फूल पंखा मोर मोरनी चारदीवारी 8 देवारी फूल का गमला वृद्ध दंपति हाथी जनेऊ नदी इसमें गंगा जमुना या अन्य नदियां बनाती साथ में सूरत देवता चंद्रमा देवता तथा तारे अवश्य ही बनाती हैं। यदि कुछ नहीं बनाती तो उस दिन चंद्रमा सूरज और सात तारे आवश्यक रूप से बनाती हैं। बनाने का कार्य शाम को होता है तथा अंधेरा हो जाने के बाद सांझी माता की आरती होती है तथा साथ ही में प्रसाद चढ़ाया जाता है। यह एक खेल के समान भी है इसमें जो प्रसाद बनाती हैं एक दूसरे को नहीं बताती हैं। आप अनुमान लगाओ यदि अनुमान सही निकलता है वह कन्या बहुत होशियार मानी जाती है।
रात में जब दीपक जलाकर आरती करती हैं तथा आरती गाती भी हैं -
आरती रे आरती संझा वाली आरती
सोने का दिया भी म होवे की बाती
नो सौ पितरा पित्त रानी के
भरे कनागत पितरन के
अंत में वह सांझी माता से आशीष मांगती हैं।
माय माय तुम देओ आशीष।.
सांझी रे सांझी का ओढेगी
का पहनेगी
काय को सीस बन बाऐगी
मां कौशल्या मोसे कहीं बहन रुक्मणी मोसे कई
विशेष कलाकृति "अमला" -
तेरस के दिन लड़के की शादी में एक विशेष प्रकार की कलाकृति बनाई जाती है, जिसे "अमला" कहा जाता है। ब्रज क्षेत्र में लड़के की शादी में यह कलाकृति विशेष रूप से रंगों से बनाई जाती है तथा इसमें दूल्हा-दुल्हन भी बनाए जाते हैं, शादी के बाद दुल्हन पहले इस कलाकृति की पूजा करती है उसके बाद घर में प्रवेश करती है। चौदस के दिन इसे नहीं हटाया जाता, लेकिन अमावस्या के दिन इसे हटाकर दीवार को चूने से पोता जाता है। फिर उसी स्थान पर रंगों से यही कलाकृति बनाई जाती है, जो साल भर बनी रहती है, यह हमारी कला और संस्कृति के प्रति गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
सांस्कृतिक संरक्षण का संदेश -
हमारी भारतीय संस्कृति कोई भी त्यौहार हो या पर्व हो प्रकृति से जुड़ने का भी संदेश देती है। प्रकृति प्रदत्त जीव जंतु तथा अन्य प्राकृतिक वस्तुएं के संरक्षण का संदेश भी यह पर्व देता है। दीवार पर बनाई जाने वाली विभिन्न आकृतियाँ इसी का प्रतीक हैं।
धार्मिक दृष्टि से, सांझी माता पार्वती जी का प्रतीक मानी जाती हैं। इनकी पूजा करके कुंवारी कन्याएँ अच्छा घर और वर मांगने की कामना करती हैं, साथ ही अपने भविष्य को सुखद बनाने की कल्पना भी करती हैं।
हालांकि, आज के आईटी के जमाने में लोग इस पर्व को पूरी तरह से भुला रहे हैं। गांवों में अभी भी इसका थोड़ा बहुत प्रचलन है, लेकिन शहरों की लड़कियाँ सांझी माता के पर्व को नहीं जानतीं। अभिभावकों से मेरा आग्रह है कि हम अपने इन पर्वों की ओर लौटें ताकि हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा जीवित रहे। हमारे पर्व मोबाइल, टीवी, और कंप्यूटर के कारण विलुप्त न हो जाएँ। आइए, हम सांझी माता की महिमा को पुनः जीवित करें और इस अद्भुत लोक पर्व को अपनी आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने का प्रयास करें।
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