
दक्षिण भारत में रक्षाबंधन: परंपरा, परिवर्तन और एकता का उत्सव
मैं एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया और मेरा जन्मस्थान जयपुर, राजस्थान है। जहाँ एक ओर मैंने उत्तर भारत की रक्षाबंधन की जीवंत परंपरा को महसूस किया, वहीं बचपन से ही मैंने अपने घर में दक्षिण भारत की वैदिक परंपराओं को भी आत्मसात होते देखा। यह सांस्कृतिक संगम मेरे लिए एक अनूठा अनुभव रहा है। हमारे परिवार में श्रावण पूर्णिमा का दिन विशेष महत्व रखता था। रक्षाबंधन, जो उत्तर भारत में भाई-बहन के प्रेम और सुरक्षा के प्रतीक के रूप में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है, दक्षिण भारत में पारंपरिक रूप से इसी रूप में व्यापक रूप से नहीं मनाया जाता। फिर भी, समय के साथ, सामाजिक बदलाव, शहरीकरण और मीडिया के प्रभाव के चलते यह पर्व अब दक्षिण भारत के अनेक हिस्सों में भी लोकप्रियता हासिल कर रहा है। इस दिन हम भी उत्तर भारत की तरह बहन द्वारा भाई को राखी बाँधने की परंपरा का पालन करते थे। मेरी माँ हर वर्ष चेन्नई में रहने वाले अपने भाइयों को राखियाँ डाक से भेजती थीं। वह राखी के साथ एक पत्र और थोड़ी सी मिठाई भी भेजा करती थीं, जो भावनाओं से भरा होता था। यही वह पुल था जो उत्तर और दक्षिण भारत की परंपराओं को जोड़ता था।
पारंपरिक समकक्ष: अवनी अवित्तम / उपाकर्मा
दक्षिण भारत के तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों में रक्षाबंधन की तिथि (श्रावण पूर्णिमा) को एक अन्य धार्मिक अनुष्ठान — अवनी अवित्तम या उपाकर्मा के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा मनाया जाता है, जिसमें वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए यज्ञोपवीत (जनेऊ) बदलते हैं और आत्मिक शुद्धता तथा आध्यात्मिक नवीकरण की प्रतिज्ञा करते हैं।
मैंने बचपन में अपने पिताजी, और उनके बड़े भाइयों को प्रातःकाल स्नान के बाद शुद्ध धोती और अंगवस्त्र (पीले/ सफ़ेद वस्त्र) पहनकर संकल्प करते इसके बाद ऋषि तर्पण किया जाता है — जिसमें ऋषियों, पूर्वजों और गुरुओं को जल अर्पित कर उन्हें स्मरण किया जाता है। पुराने जनेऊ को विधिपूर्वक हटाया जाता है और नए यज्ञोपवीत को वैदिक मंत्रों के साथ धारण किया जाता है। यह प्रक्रिया आत्मिक और मानसिक शुद्धता का प्रतीक है। वैदिक मंत्रों की ध्वनि पूरे
वातावरण को पवित्र बना देती थी। मुझे याद है, मेरे ममेरे भाइयों को जब पहली बार जनेऊ धारण करवाने वाले थे, तो पूरे घर में उत्सव जैसा माहौल था। उन्हें गायत्री मंत्र का उपदेश (ब्रह्मोपदेशम्) दिया गया और फिर सबने मिलकर 108 बार मंत्र जाप किया। यह अनुष्ठान वैदिक अध्ययन के नए सत्र की शुरुआत मानी जाती है। आत्मा की पुनः शुद्धि और आध्यात्मिक ऊर्जा के संचार का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि व्यक्ति हर वर्ष आत्मनिरीक्षण कर अपनी आस्था को और भी गहरा बनाता है।
अनुष्ठान के पारिवारिक और सामाजिक आयाम
यह पर्व परिवार को एक सूत्र में बाँधता है। पिता अपने पुत्रों को यज्ञोपवीत पहनाते हैं, जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान और परंपरा का स्थानांतरण होता है। यह परंपरा संस्कारों की शिक्षा और जीवन में अनुशासन का भाव भी सिखाती है।
घर में बनते हैं पारंपरिक व्यंजन
इस दिन मेरी माँ बिना प्याज-लहसुन के सात्त्विक भोजन बनाती थीं। जैसे सांभर, रसम, अवियल – कई प्रकार की सब्जियों, नारियल और दही से बना गाढ़ा व्यंजन।, पुलिहोरा, केले की सब्जी, वड़ा, इडली, कोसुमलरी, अप्पलम – खस्ता पापड़, पायसम – चावल, मूंग दाल या सेवइयों से बना दूध और गुड़ वाला मीठा व्यंजन। चक्करा पोंगल (मीठा पोंगल) – गुड़, घी और काजू के साथ चावल और मूंग दाल आदि। केले के पत्ते पर भोजन परोसा जाता और परिवार साथ बैठकर भोजन करता। यही वह क्षण होते थे जो पीढ़ियों को जोड़ते हैं । अवनी अवित्तम / उपाकर्मा के दिन का भोजन केवल स्वाद का विषय नहीं, बल्कि संस्कार, परंपरा और पूजा का अभिन्न हिस्सा होता है। यह पवित्रता और आत्मीयता से परिपूर्ण होता है, जो परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ लाकर सांस्कृतिक एकता और आत्मिक संतोष का अनुभव कराता है, हालाँकि दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों में रक्षाबंधन जैसा कोई पारंपरिक भाई-बहन पर्व नहीं होता, परंतु वरलक्ष्मी व्रतम जैसे त्योहारों के माध्यम से परिवार की समृद्धि और कल्याण की प्रार्थना की जाती है। इस व्रत में महिलाएँ देवी लक्ष्मी की पूजा करती हैं और परिवार के पुरुषों के कल्याण की कामना करती हैं। श्रावण मास के किसी भी पांच शुक्रवार को महिलाएं व्रत करती हैं, ये व्रत परिवार की खुशहाली के लिए माता लक्ष्मी की पूजा कर की जाती है इस व्रत का में विशेष महत्त्व हाेता है।
दो संस्कृतियों का संगम -
जहाँ उत्तर भारत में रक्षाबंधन भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है, वहीं दक्षिण भारत में यह दिन आत्मिक उन्नति और वैदिक परंपराओं के पुनर्नविकरण का अवसर होता है। मेरे परिवार ने दोनों परंपराओं को अपनाकर एक सुंदर समरसता का उदाहरण प्रस्तुत किया। यह मेरे जीवन का अमूल्य हिस्सा है। रक्षाबंधन अब दक्षिण भारत में भी परंपरा और परिवर्तन के संगम के रूप में उभर रहा है। दक्षिण भारत में रक्षाबंधन का उत्सव अब एक संस्कृति के संगम का प्रतीक बन चुका है। जहाँ एक ओर लोग अपनी पारंपरिक मान्यताओं को निभा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी राखी के माध्यम से संबंधों में स्नेह और सुरक्षा का भाव भी व्यक्त कर रही है।
अवनी अवित्तम या उपाकर्मा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्म-शुद्धि, परिवारिक परंपरा और पीढ़ीगत ज्ञान का उत्सव है, और जब इसके साथ रक्षाबंधन की राखी भी जुड़ जाती है, तो यह दिन प्रेम, परंपरा और एकता का अद्भुत संगम बन जाता है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही कहता है कि भारत की विविधता में जो एकता है, वही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
यह पर्व हमें यह सिखाता है कि चाहे परंपराएँ अलग हों, पर प्रेम, बंधन और समर्पण के भाव सभी भारतीय संस्कृतियों में एक जैसे ही हैं। आज की पीढ़ी इस पर्व को एक राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में अपना रही है, जिससे सामाजिक समरसता और आपसी सद्भाव को और अधिक बल मिल रहा है।
लेखिका - डॉ लता सुरेश जी
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