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नवरात्रि में कोलू/गोलू: परंपरा और आधुनिकता का संगम

नवरात्रि में कोलू/गोलू: परंपरा और आधुनिकता का संगम

भारत की सांस्कृतिक धारा में नवरात्रि का पर्व एक विशेष स्थान रखता है। जहाँ पूर्वी भारत में दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन होता है, वहीं दक्षिण भारत में यह उत्सव अपनी आध्यात्मिक गहराई, कलात्मक परंपराओं और सामुदायिक सहभागिता के कारण विशेष रूप से मनमोहक है। नवरात्रि का पर्व पूरे भारत में देवी शक्ति की उपासना का समय है।

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना -

यहाँ नवरात्रि के दौरान देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। सबसे अद्भुत परंपरा है बतुकम्मा पाडुंगा, जिसमें महिलाएँ नौ दिनों तक रंग-बिरंगे फूलों के ढेर सजाती हैं। दशमी को ये फूल श्रद्धा के साथ जलाशयों में प्रवाहित किए जाते हैं। यह रस्म भक्ति, सामूहिकता और प्रकृति-प्रेम का अद्भुत प्रतीक है।

तमिलनाडु -

यहाँ नवरात्रि को तीन भागों में विभाजित किया जाता है—  
• पहले तीन दिन देवी लक्ष्मी की पूजा,  
• चौथे से छठे दिन तक देवी दुर्गा की आराधना,  
• और अंतिम तीन दिन देवी सरस्वती की उपासना।  
घर-घर में गोलू/कोलु (सीढ़ियों पर मूर्तियों की सजावट) परंपरा का हिस्सा है, जहाँ देवी-देवताओं और पौराणिक प्रसंगों की झाँकी प्रस्तुत की जाती है।

केरल -

केरल में नवरात्रि के आखिरी तीन दिन बहुत पवित्र माने जाते हैं।  
• महाअष्टमी को पूजावैप्पु होता है, जब पुस्तकें और वाद्ययंत्र देवी सरस्वती को अर्पित किए जाते हैं।  
• महानवमी पर इनका पूजन किया जाता है।  
• विजयदशमी को पूजा एदुप्पु और विद्यारंभम होता है, जिसमें छोटे बच्चों को पहली बार अक्षर लिखवाए जाते हैं—यह उनकी शिक्षा यात्रा की शुरुआत का प्रतीक है।

कर्नाटक -

कर्नाटक का नवरात्रि उत्सव मैसूर दशहरा के रूप में विश्व प्रसिद्ध है। इस दौरान मैसूर महल जगमगाता है और देवी चामुंडेश्वरी की पूजा होती है। राज्य के विभिन्न हिस्सों में गुड़ियों की सजावट, उपहार वितरण और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा भी है।  
उत्तर भारत में जहाँ यह पर्व गरबा और रामलीला के रूप में प्रसिद्ध है, वहीं दक्षिण भारत में "कोलुगु/गोलू/कोलुवु" सजाने की अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसे तमिलनाडु में बोम्मई गोलु, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना में बोम्माला कोलुवु और कर्नाटक में गुंबे हब्बा कहा जाता है।

  

    

पारंपरिक स्वरूप -

इस परंपरा में घर में सीढ़ीनुमा मचान (steps) बनाए जाते हैं – प्रायः 3, 5, 7, 9 या 11 पायदान। इन पर मिट्टी, लकड़ी या धातु की मूर्तियाँ सजाई जाती हैं।  
 

कोलुगु पायदानों का प्रतीकात्मक अर्थ -

1. पहला (निचला पायदान)  
• इसमें जानवर, पेड़, किसान, खिलौने और सामान्य जीवन की झलक दिखाई जाती है।  
• यह भौतिक जगत और प्रकृति (Prakriti) का प्रतीक है।  
• संदेश: जीवन का आधार धरती, पशु-पक्षी और समाज है।

2. दूसरा पायदान  
• इसमें महापुरुष, संत, कवि, लोक-नायक और ऋषि-मुनि की मूर्तियाँ सजाई जाती हैं।  
• यह ज्ञान, संस्कृति और धर्म का प्रतीक है।  
• संदेश: भक्ति और ज्ञान, मानव जीवन को ऊँचाई देते हैं।

3. तीसरा पायदान  
• इसमें देवताओं की मूर्तियाँ रखी जाती हैं।  
• यह दैवीय शक्तियों और आध्यात्मिक मार्ग का प्रतीक है।  
• संदेश: जीवन की यात्रा अंततः ईश्वर की ओर जाती है।

इसी तरह 5, 7, 9 या 11 पायदान बनने पर यह क्रम आगे और सूक्ष्म होता है:  
• निचले पायदान → स्थूल जगत (भौतिक जीवन, समाज, प्रकृति)  
• बीच के पायदान → साधक, ऋषि, संत (आध्यात्मिक मार्गदर्शन)  
• ऊपरी पायदान → देवी-देवता और परमात्मा (मोक्ष और ईश्वर साक्षात्कार)

दार्शनिक दृष्टि -  
पूरा कोलुगु इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य की यात्रा निचले स्तर (भौतिक संसार) से शुरू होकर ज्ञान और भक्ति के मार्ग से होती हुई ईश्वर और मोक्ष की ओर जाती है। हर साल नई मूर्ति जोड़ने की परंपरा “पड्डुमनी” कहलाती है, जो नई शुरुआत का प्रतीक है।

पूजा के दौरान दीप जलाए जाते हैं, स्तोत्र गाए जाते हैं और पड़ोसियों को “सुंदल” (चना/दाल से बना प्रसाद) और “हल्दी-कुमकुम” बाँटा जाता है। इस प्रकार कोलुगु केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान का पर्व है।

दक्षिण भारत की इन परंपराओं के बीच कई घरों में देवी सरस्वती पूजन से जुड़ी पारिवारिक यादें भी गहरी हैं। जैसे कि— हमारे यहाँ भी नवरात्रि में कोलुगु सजाने की प्रथा रही है। बचपन के दिनों में यह मेरे लिए किसी उत्सव से कम नहीं होती थी। जब घर में सीढ़ीनुमा मचान पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सजाई जाती थीं और दीपक की रोशनी में पूरा वातावरण भक्ति से भर उठता था, तब हम बच्चे विशेष उत्साह से इसमें भाग लेते थे। काफी समय तक इस परंपरा का पालन पूरे विधि-विधान और आनंद के साथ किया गया। परंतु समय के साथ यह धीरे-धीरे केवल पूजा तक सीमित रह गई। आज भी मुझे याद है— सप्तमी के दिन हमारे पिताजी हमारी सभी किताबें, पेन और कॉपियाँ कोलुगु के पास या माँ सरस्वती के चरणों में रखवा देते थे। दशमी के दिन पूजन और विसर्जन के बाद इन्हें वापस उठाया जाता था। तब यह कहा जाता था कि दशमी के दिन जो पढ़ाई की जाती है, वह जीवनभर स्मृति में अंकित रहती है। यह परंपरा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं थी, बल्कि शिक्षा और ज्ञान को पवित्र मानने की एक गहरी सांस्कृतिक सीख थी। बचपन की यह स्मृति आज भी मन में गूँजती है और यह संदेश देती है कि नवरात्रि केवल देवी की पूजा ही नहीं बल्कि ज्ञान, भक्ति और जीवन मूल्यों का उत्सव भी है।

आधुनिक रूप -

आज के समय में कोलुगु सजाने का स्वरूप बदल रहा है।  
• पहले लकड़ी और बांस की मचान होती थी, अब रेडीमेड मेटल और प्लास्टिक स्टैंड प्रचलन में हैं।  
• पारंपरिक मूर्तियों के साथ-साथ फाइबर, इको-फ्रेंडली और 3D प्रिंटेड मूर्तियाँ भी सजाई जाती हैं।  
थीम-बेस्ड गोलू लोकप्रिय हो रहे हैं, जैसे – रामायण, स्वतंत्रता संग्राम, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण इत्यादि।  
• सजावट में LED लाइट्स, मिनी गार्डन, कृत्रिम झरने और प्रोजेक्टर डिस्प्ले का प्रयोग किया जाता है।  
• सोशल मीडिया पर वर्चुअल गोलू प्रतियोगिताएँ भी अब आम हो गई हैं।   
• इको-फ्रेंडली मूर्तियों का प्रयोग भी किया जाता है। थीम्स में SDGs (Sustainable Development Goals), स्वच्छ भारत, हरित ऊर्जा जैसे विषय भी लिए जाते हैं।

कोलुगु/गोलू केवल देवी शक्ति के स्वागत की परंपरा नहीं है, बल्कि यह कला, संस्कृति और भक्ति का संगम है। बदलते समय के साथ इसका स्वरूप आधुनिक जरूर हुआ है, पर इसका मूल संदेश वही है – सृष्टि के विविध रूपों का उत्सव और समाज को रचनात्मकता व भक्ति से जोड़ना। आज की व्यस्त जीवनशैली और आधुनिक दौर में भले ही कई परंपराएँ बदल गई हों, लेकिन उनका आंतरिक संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है।  
• कोलुगु हमें याद दिलाता है कि भक्ति और ज्ञान का संगम ही जीवन का वास्तविक मार्ग है।  
• देवी सरस्वती की पूजा यह सिखाती है कि शिक्षा केवल करियर का साधन नहीं बल्कि जीवन को दिशा देने वाली शक्ति है।  
• बच्चों के लिए यह परंपरा अनुशासन, श्रद्धा और अध्ययन के महत्व को समझाने का माध्यम बन सकती है।  
इसलिए, भले ही कोलुगु अब केवल पूजा तक सीमित रह गया हो, लेकिन इसकी आत्मा को अपनाकर नई पीढ़ी भी ज्ञान और संस्कृति की इस विरासत को आगे बढ़ा सकती है।


लेखिका - डॉ. लता सुरेश जी

  

    

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