
राजेश्वर प्रसाद की उम्र यद्यपि काफी हो चुकी थी लेकिन अपनी वास्तविक उम्र से बहुत कम के लगते थे राजेश्वर प्रसाद।
और इसका कारण था उनकी संतुलित दिनचर्या व जीवनचर्या। नियमित रूप से व्यायाम और सैर करना तथा खानपान में संयम बरतना उनकी आदत बन चुकी थी। उनकी दिनचर्या और आदतों का उनके युवा पुत्र विवेक पर भी काफी गहरा प्रभाव था। विवेक भी स्वास्थ्य के प्रति बेहद सचेत था और व्यायाम करने और दौड़ लगाने में कभी कोताही नहीं बरतता था।
बेशक विवेक युवा था और उसमें अधिक चुस्ती-स्फूर्ति थी लेकिन राजेश्वर प्रसाद भी किसी तरह से कम नहीं थे।
एक दिन संयोग से पिता और पुत्र दानों साथ-साथ सैर को निकले और पार्क में जाकर दौड़ लगाने का कार्यक्रम बना। मज़े-मज़े में दोनों के बीच मुक़ाबला होने लगा। मज़ाक़-मज़ाक़ में पिता ने पुत्र को चुनौती दी। दोनों के बीच दौड़ प्रारंभ हुई। कभी पिता आगे निकल जाते तो कभी पुत्र लेकिन अंत में जीत पिता की ही हुई। पुत्र ने कहा, ‘‘मैं बहुत ख़ुश हूँ कि जीत आपकी हुई। आप पिता हैं तो आपका विजेता होना अच्छा लगता है।’’ पिता ने कुछ नहीं कहा लेकिन जीत जाने के बावजूद उनके चेहरे पर कहीं भी प्रसन्नता का नामोनिशान मौजूद नहीं था।
काफी वक़्त गुज़र गया पर दोनों की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया। दोनों अब भी व्यायाम करते और दौड़ लगाते। राजेश्वर प्रसाद विवेक को अधिकाधिक अभ्यास करने के लिए प्रेरित करते। विवेक सचमुच बहुत अच्छा दौड़ने लगा था। एक दिन फिर मज़ाक़-मज़ाक़ में पिता ने पुत्र को चुनौती दे डाली। मुक़ाबला प्रारंभ हुआ।
कभी पिता आगे निकल जाते तो कभी पुत्र लेकिन इस बार पुत्र का पलड़ा भारी था। इसके बावजूद राजेश्वर प्रसाद ने आगे निकलने की अपनी कोशिश में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उनके प्रयास से लग रहा था कि वो हर हाल में जीतना चाहते हैं। राजेश्वर प्रसाद जीतना चाहते ही नहीं थे जीते भी।
दौड़ जब निर्णायक दौर में पहुँची तो जीत का श्रेय विवेक के हाथ लगा। यद्यपि राजेश्वर प्रसाद हार चुके थे लेकिन उनके चेहरे पर झलकती प्रसन्नता की लहरें साफ दिखलाई पड़ रही थीं।
राजेश्वर प्रसाद ने विवेक के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘जिस दिन मेरा बेटा मुक़ाबले में मुझसे हार गया था और मैं जीत गया था वो मेरी बहुत बड़ी हार थी। आज मैंने उस हार का बदला ले लिया है। मैं बहुत ख़ुश हूँ कि आज मैं हार गया हूँ और मुक़ाबले में मेरा पुत्र मुझसे जीत गया है। मेरे पुत्र की जीत ही मेरी वास्तविक जीत है।’’
लेखक - सीताराम गुप्ता जी, पीतमपुरा (दिल्ली)
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