
कजली तीज हमारी भारतीय संस्कृति का एक परंपरागत लोक पर्व है। कजली तीज को बड़ी तीज, बूढ़ी तीज, तथा सातुड़ी तीज के नाम से जाना जाता है। यह व्रत विशेषकर सुहागिन महिलाओं का होता है कुमारी कन्याओं तथा युवतियों के लिए यह उल्लास एवं खुशी का पर्व है। मेहंदी लगाना श्रृंगार करना तथा विशेषकर लहरिया की साड़ी इस दिन ज्यादातर पहनी जाती है।
लहरिया की साड़ी हल्की-हल्की फुहारे झूले का झूलना तथा कजरी गीत गाना अपने आप में ही एक सुखद अनुभूति है।
कजली तीज भादो की कृष्ण पक्ष की तीज को मनाई जाती है। जिस प्रकार से हरियाली तीज या हरितालिका तीज, अक्षय तृतीया का अपना महत्व है वैसे ही कजली तीज का अपना एक विशेष महत्व। कजली तीज के दिन मां पार्वती की पूजा एवं अर्चना सौभाग्यवती बहनों के द्वारा की जाती है यह विशेष पूजा अपने पति की लंबी आयु के लिए की जाती है, वही कुंवारी कन्याएं अच्छा वर प्राप्त करने के लिए कजली तीज का व्रत करती हैं। कजली तीज अधिकतर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार में विशेषकर मनाई जाती है।
महत्व - भीषण गर्मी की तपन के बाद मानसून का स्वागत करने हेतु कजरी तीज मनाई जाती है। इसका इसलिए भी महत्व क्यों की सौभाग्यवती महिलाएं पार्वती जी का सम्मान करने के लिए यह व्रत करती हैं तथा चंद्र दर्शन के बाद व्रत तोड़ते हैं।
विधि - कजरी तीज को पार्वती की पूजन के साथ गाय की पूजा भी की जाती है तथा नीम की पूजा भी होती है। पर्यावरण तथा प्रकृति और पशु पक्षियों से जुडाव जो हमारी संस्कृति की विशेषता है, कजरी तीज इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
किवदंती है कि 108 बार पार्वती जी ने जन्म लिया उसके बाद शंकर जी से शादी करने में सफल हुई थी। यह तीज निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है। पार्वती जी की भक्ति निस्वार्थ भक्ति थी।
इस दिन के लिए जौ, चने, चावल, गेहूं के सत्तू बनाए जाते हैं और उसमें घी और मेवा मिलाकर विविध प्रकार के व्यंजन बनाकर पार्वती जी का प्रसाद लगाया जाता है।
क्यों मनाई जाती है ?
- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कजली मध्य भारत में स्थित एक जंगल का नाम था, वहां के लोग अपने निवास स्थान अर्थात जहां वह रहते थे उसको प्रसिद्ध करने के लिए जो गाने गाते थे उसे कजरी कहते थे। क्षेत्र के राजा दादू राई थे उनकी मृत्यु के बाद उनकी रानी नागमती सती प्रथा को मानते हुए सती हो गई। तो वहां के लोग इस दुख में रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना शुरू कर दिया।
- इसके अतिरिक्त देवी पार्वती को सम्मानित करने के लिए पूजा की जाती है यह पति के लिए पत्नी की भक्ति समर्पण तथा निस्वार्थ प्रेम को दर्शाती है।
मेला कजली का -
राजस्थान के बूंदी में तीज का मेला लगता है। जयपुर में पहले तीज की सवारी निकलती थी कहा जाता है बूंदी के राजा तीज के दिन निकलने वाली सवारी में से तीज माता को जीत कर ले आए तथा तबसे सवारी तथा मेला गोठड़ा में निकालने लगे। राजा कीमत के बाद वह थोड़ा के स्थान पर बूंदी के राजा तीज माता को बूंदी ले आए तब से बूंदी में सवारी निकलती है। यह सवारी शान शौकत का प्रतीक थी 21 तोपों की सलामी होती थी तथा दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। सवारी की परंपरा अभी भी है लेकिन सवारी राज महल के अंदर ही निकलती है। अब नगर परिषद द्वारा तीज माता की सवारी जनता के दर्शनार्थ निकाली जाती है।
व्रतकथा - एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नी ने भादो की कृष्ण पक्ष तीज का व्रत रखा, तथा व्रत की पूजा हेतु सत्तू लाने का आग्रह किया। ब्राह्मण देवता के पास पैसे नहीं थे उन्होंने सोचा तीज माता की पूजा अधूरी रह जाएगी इसलिए बनिए की दुकान में घुस गए तथा वहां से तौल कर सवा सेर सत्तू बनाने के लिए चने की दाल घी शक्कर लेकर सत्तू बना लिया तथा लेकर जा नहीं लगा तभी आवाज सुनकर बनिया जाग गया और उन्होंने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया ब्राह्मण देवता ने पूरी कहानी बनिया को बताई। बनिया तीज माता की पूजा के प्रति श्रद्धा से भर गया और उसने ब्राह्मण देवता को जाने दिया तथा ब्राह्मणी को अपनी बहन मान लिया ब्राह्मण देवता सुख से रहने लगे।
जैसे उस ब्राह्मण देवता के दिन फिर वैसे ही सभी के दिन फिरे तीज माता हमें सुख शांति दें तथा प्रसाद लगाकर चंद्र दर्शन कर व्रत तोड़ती हैं।
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