
गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर्व दिवाली के अगले दिन मनाया जाता है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है। इस दिन लोग घर के आंगन में गोबर से गोवर्धन पर्वत का चित्र बनाकर गोवर्धन भगवान की पूजा करते हैं। इस दिन गायों की सेवा का विशेष महत्व है। इस दिन के लिए मान्यता प्रचलित है कि भगवान कृष्ण ने वृंदावन धाम के लोगों को तूफानी बारिश से बचाने के लिए पर्वत अपने हाथ पर उठा लिया था। तो चलिए जानते हैं क्या है इसकी कहानी।
गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। श्री गिरिराज जी द्रोणाचल पर्वत के पुत्र हैं, किसी समय आप 8 योजन लंबी 2 योजन ऊंचे और 5 योजन चौड़े थे। एक समय पुलस्त्य ऋषि की इच्छा श्री गिरिराज जी को काशी पधराने की हुई। गिरिराज जी ने काशी पधारने की हां तो कहीं, किंतु एक शर्त रखी "रास्ते में आप मुझे कहीं भी रखोगे तो मैं पुनः वहां से नहीं हटूंगा" पुलस्त्य ऋषि ने शर्त स्वीकार करते हुए अपने योग माया से पर्वत को अत्यंत छोटा रूप देखकर हाथ में लेकर निकल पड़े । रास्ते में बृज आया, तब ऋषि को लघु शंका लगी उन्होंने गिरिराज जी को जमीन पर रख दिया तथा लघु शंका निवृत्ति के लिए गए। वापिस आकर उन्होंने जैसे ही गिरिराज जी को उठाने का प्रयत्न किया, तब गिरिराज जी ने कहा" मैं यहां से नहीं उठूंगा, मैंने पहले ही आपसे कहा था कि आप मुझे जहां रख देंगे मैं उस स्थान से नहीं उठूंगा। पुलस्त्य ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने श्राप दिया आप रोज एक तिल के बराबर घटोगे और एक दिन अदृश्य हो जाओगे ।इसी श्राप के कारण आज भी गिरिराज जी रोज तिल भर घटते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कभी गिरिराज की परछाई मथुरा में बैठी श्री यमुना जी पर पड़ती थी, इतना ऊंचा यह पर्वत था।
दूसरा प्रमाण यह है की श्रीनाथजी जब ब्रज में से मेवाड़ पधारे तब दंडवते शीला की ऊंचाई एक मनुष्य जितनी थी। श्री गुसाईं जी एक समय हाथी पर चढ़कर मुखारविंद पर गिरिराज जी का पूजन करते, जबकि अब तो गिरिराज जी का पूजन खड़े-खड़े ही हो सकता है। श्री कृष्ण 7 वर्ष के थे तब इंद्र पूजा की तैयारी देखकर श्री कृष्ण ने गांव वालों को बताया कि हमें इंद्र पूजा नहीं करनी चाहिए, परंतु गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि यही हम सभी की रक्षा करता हैं, गायों को घास देता है जल के कुंड इन्हीं में है, छोटी बड़ी कंदरा में विश्राम की सुविधा देता है, इन्हीं के वृक्षों से फल तथा जलाने के लिए लकड़ी हमें प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण ने गिरिराज जी का यज्ञ करने को कहा, उसका पूजन सेवा करने को कहा, ब्रज वासियों ने ठाकुरजी की बात मानकर इंद्र पूजा के बदले गोवर्धन पूजा की शुरुआत की। श्री कृष्ण ने गिरिराज जी पर अपना विराट स्वरूप प्रकट किया और सहस्त्र भुजा धारण करके भोग आरोगा। श्री कृष्ण ने गिरिराज जी को भोग धराया, कैसी अटपटी और अद्भुत लीला ।इतने में आकाश से गगनभेदी आवाजों के साथ बादल भी रूठे, ब्रजमंडल पर मूसलाधार वर्षा की शुरुआत हो गई, श्री कृष्ण अपने बाएं हाथ के कनिष्ठ अंगुली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठा कर सुदर्शन चक्र छोड़ा। सभी ब्रजवासी अपनी गायों को लेकर गोवर्धन पर्वत के नीचे आ गए। 7 दिनों तक श्री कृष्ण ने ब्रज की, वृद्ध जनों की, ब्रज की गायों की ,गोवर्धन रुपी छत्र को धारण कर सभी की रक्षा की। आखिर इंद्र हार गये, उनकी पराजय हुई। इंद्र की सुरभि गाय ने दूध स्तर्वित करके भगवान का अभिषेक किया। इंद्र का गर्व दमन हुआ, देवा दी देव श्री कृष्ण इंद्र दमन के नाम से पहचाने जाने लगे ।
गिरिराज जी की परिक्रमा मुखारविंद पर आज्ञा मांग कर दंडवत शीला को दंडवत करके शुरू होती है। यह परिक्रमा तीन प्रकार से हो सकती है
1-पैदल चलकर
2-पैदल दूध धारा की परिक्रमा ,हाथ में दूध की छोटी मटकी लेकर चल कर यह परिक्रमा की जाती है। मटकी में छोटा सा छेद किया जाता है जिससे दूध की धारा बहती है ।
3-दंड की परिक्रमा -यह परिक्रमा साष्टांग दंडवत करते हुए की जाती है, इसमें 11 से 15 दिन लगते हैं परिक्रमा करते करते अष्टाक्षर मंत्र “श्री कृष्ण शरणम् मम:” का उच्चारण करते रहना चाहिए।
श्री गिरिराज जी की परिक्रमा के तीन प्रमुख मार्ग हैं -
1- 7 कोस (21 किलोमीटर) इसका रास्ता मुखारविंद से गोवर्धन -मानसी गंगा- उद्धव कुंड- राधा कुंड-आन्यौर- गोविंद कुंड- पूंछरी का लौठा -सुरभी कुंड -मुखारविंद है।
2- 9 कोस इसमें गोवर्धन से चंद्र सरोवर का भाग अधिक आता है।
3-5 कोस परिक्रमा राधा कुंड न जाकर गोवर्धन से सीधे आन्यौर पर जाती है, यह 15 किलोमीटर में पूर्ण हो जाती है।
ब्रजभूमि के रज कण में "गिरिराज धरण की जय" भक्ति गूंजती है, और कहा जाता है "बस एक बार आजा गिरिराज की शरण में, सर्वस्व कर दे अर्पण गिरिराज की शरण में"।
भाग 2 भी पढ़े - श्री गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट
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