
आर्यावर्त की भूमि कोई साधारण भूमि नहीं है यह वह भूमि है जहाँ उदारता और कृतज्ञता का भाव सदैव विद्यमान रहता है। साथ ही बात जब संस्कृति और सभ्यता की चले तब यह देश समूचे विश्व में शिरमौर है।
कारण यह है कि संस्कार की आधारशिला पर ही इस देश की नींव रखी है। यहाँ जितना स्नेह अपने देश की मिट्टी से किया जाता है उतना ही स्नेह ईश्वर द्वारा प्रदत्त हर एक वस्तु से & जिस प्रकार नदियों का बहना, झरनों का फूटना, फूलों का खिलना स्वतः ही आनंदकारी घटना है ठीक उसी प्रकार भाषा का बोलना, भाषा का लिखना, भाषा का पढ़ना अपने आप में आनंद को महसूस करना है। उसी आनंदित पल को जब सहर्ष रूप से राज्य में, राष्ट्र में, विश्व में स्वीकार कर लिया जाता है तब वह दिवस बन जाता है जिसे हम हिंदी दिवस, संस्कृत दिवस इत्यादि रूप से जानते हैं। संस्कृत का होना ही अपने आप मे संस्कार का होना है क्योंकि संस्कृत का शाब्दिक अर्थ भी है- परिष्कृत।
श्रावण पूर्णिमा के विशेष अवसर पर हम संस्कृत दिवस मनाते हैं इस दिवस के दिन अध्ययन आरंभ किया जाता है, इसी दिन ही ऋषि यज्ञोपवीत संस्कार धारण करते हैं। चूंकि यह पवित्रता का पर्याय है इसीलिए इसका विधान भी पवित्र और धार्मिक है।
संस्कृत देववाणी हैं, सभी भाषाओं की जननी है। हमारे सभी वेद संस्कृत में लिपिबद्ध हैं। यह भाषा नहीं है बल्कि एक माँ हैं, जब इसे बोल रहे होते हैं लगता है मानो हम संगीत गायन कर रहे हो कोई राग छेड़ रहे हों, सुनते हैं तब लगता है मानो जैसे मां ने कोई लोरी सुनाई हो, नवल प्रभात की आरती हुई हो। इस भाषा का अलग ही रोमांच है। यह वह धारा है जिसकी अजस्त्र धाराएं फूटकर विभिन्न विभिन्न जगहों पर भिन्न भिन्न रूपों में जन समुदाय को आनंदित कर रही हैं।
गर्व कीजिए अपने सनातनी और संस्कारी होने पर कि हमने विरासत में ऐसी धरोहर प्राप्त हुई है अब हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम इस परंपरा का निरंतर विकास करें यही असली कृतज्ञता होगी।
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