
वह अपने उस छोटे से घर को बहुत ज्यादा प्यार करता था। उस घर की एक-एक चीज से, एक-एक सदस्य से।एक अनुभवी माली की तरह वह अहर्निश बिला - नागा अपनी बग़िया को सजाने-सँवारने में लगा रहता। बाजार से कलेण्डरनुमा एक ब्लैकबोर्ड लाकर बैठक की दीवार पर टाँग दिया और रोज सुबह रंग-बिरंगी खल्लियों से उसपर कोई उक्ति, कोई स्लोगन उकेर देता था। एक बार ज़्यादा ही खुश हुआ तो लिख दिया कि 'यह घर बहुत हसीन है'। लेकिन थोड़ी ही देर में उस लिखे को अपनी धोती के कोर से मिटा भी दिया। माँ की बात याद आ गयी। कहा था कि अपने सुख और ख़ुशी को दुनिया के सामने जतलाने से किसी न किसी की बुरी नज़र लग जाती है। माँ थी पुराने ख़यालातों वाली - थोड़ी सी दक़ियानूस। रोज घर की देहरी लांघने की मजबूरी नहीं रही तो निभा गयी। अब कहाँ हो पाएगा भला? लेकिन बहुत कम में बहुत ज्यादा का जो एहसास माँ दिला गयी, अब बहुत हो जाने के बाद भी वो एहसास पैदा नहीं हो पाता। चावल-दाल में ही नहीं बल्कि कपडे-लत्ते, गहना-गुड़िया, सम्बन्ध - मर्यादा... हर मामले में! पहले कठिनाइयां थी परन्तु अभाव का भाव नहीं था। अब दुनिया मुट्ठी में है पर अभाव स्थाई भाव में है.....।
घर हसीन है, इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बहुत सारी तैयारियों की जरूरत होती है और उन तैयारियों की नियमित जांच-परख के बाद ही "ओके-टेस्टेड" का स्टिकर चिपकाना था पर जिंदगी में हम कई बार उत्साह के मारे जल्दबाजी कर जाते हैं। उसकी इस जल्दबाजी का सारा दोष उसके मत्थे नहीं मढा जा सकता था। दरअसल वह एक ऐसे गुरु का शागिर्द बन चुका था जो दुनियाभर के थके माँदे अंग्रेज़ीदां लोगों को अपनी बोली की गोली खिलाकर हताशा और निराशा के दलदल से निकाल बाहर करने के दावे करता था। यूँ तो उसे गुरूजी की बहुत सारी बातें अच्छी लगती थीं और वह उन संदेशों को अपने जीवन और आचरण में उतारने की कोशिश भी करता था परन्तु उनकी एक बात जो उसके हृदय में पत्थऱ की लक़ीर की भाँति अंकित हो गयी थी, वो थी "मेक इट और फेक इट" अर्थात जो करना है, पाना है, लेना है वो हासिल कर लो और जब तक हासिल नहीं कर पाते तब तक दुनिया के सामने यह दिखाने का प्रयत्न करते रहो कि तुमने वह सब कुछ हासिल कर लिया है।
बात पते की थी, प्रभावशाली भी और व्यावहारिक भी! दुनिया पुस्तक के आवरण को ही तो देख पाती है। दुनिया मशरूफ़ है अपने आप में। उसके पास इतना वक़्त नहीं है कि वह किताबों के पन्नों को परखने की सरदर्दी पाल। पहले कभी होता होगा। अब तो सब कुछ फटाफट चाहिए। किस्तों में ही सही पर अभी के अभी। होम लोन से लेकर संबंधों तक में किस्तों की सुविधा आ जाने से सहूलियत बढ़ गई है। जिस ज़माने में लोन सुलभ नहीं थे तो लोग दीवारों पर प्लास्टर कहाँ चढ़ा पाते थे? दीवारों की असलियत सालों साल लोगों का मुंह चिढ़ाती रहती थी। समय - धूप - बारिश - आंधी अपनी छाप ईंटों की क्यारियों में छोड़ती चली जाती थीं। प्लास्टर होने से बहुत सारी गोपन बातें बेपर्द होने से बच जातीं, पर ऐसा हो नहीं पाता था....।
किस्तों की बात से ही एक और बात याद आ गयी। पहले एक ही सम्बन्ध को सालों-साल, दशकों तक ढोते रहने की एक उबाऊ परम्परा थी लेकिन अब आधुनिकता ने पुराने पड़ते सम्बन्धों को परित्यक्त अथवा कबाड़ घोषित करने की स्वतन्त्रता दे दी है। भोजन और परिधान में विविधता बढ़ने के साथ-साथ सम्बन्धों में भी नयेपन की तलाश शुरू हो गयी है। आज कल वेब सीरीज में परोसी जानेवाली भोंडी कहानियां भी शायद समाज के इसी ट्रेंड के तरफ इशारा करती हैं। हर पुरानी चीज़ से मोहभंग को जायज़ ठहरा दिया गया है शायद....।
उसकी उम्र ढलान पर थी। बच्चे बड़े हो चुके थे। सत्ता हस्तांतरण का वक़्त आने को था। छोटा सा बग़ियानुमा मकान अपने बासीपन की वज़ह से ऊर्जा, ओज और दर्प से भरे नवयुवकों को रास नहीं आ रहा था। घर में अहिंसक अवज्ञा आंदोलन का दौर चला और उसे गाँव की पुश्तैनी ज़मीन औने-पौने दाम में बेचनी पड़ गयी। पैसों की गर्माहट से शांति बहाल हो गयी। घर का जीर्णोद्धार करना आवश्यक था। एक प्रतिष्ठित आर्किटेक्ट ने अत्याधुनिक डिज़ाइन और फर्निशिंग से युक्त पूरा हिसाब बना दिया और आश्वस्त किया कि ढाई करोड़ में ऐसी चीज बन कर निकलेगी कि लोग दांतों तले अंगुलियाँ दबाने लगेंगे।
सत्ता पर अभी अभी काबिज हुए लोगों ने आर्किटेक्ट की बातों का शत-प्रतिशत पालन किया। जो चीज़ बन कर निकली वो वाकई अद्भुत थी। इतना आकर्षक मकान पूरे शहर में इससे पहले बना ही नहीं था। मकान को अंदर बाहर से सुसज्जित करने में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती गयी। पापा को खुली जगह में रहने की आदत है और गार्डनिंग उनकी हॉबी है इसलिए बच्चों ने 10x10 का एक हवादार आउट हाउस भी बनवा दिया था। उसी आउट हाउस में घर की सारी पुरानी और गैर जरूरी चीजें सजा दी गयीं। बग़िया के मालिक ने जब अपनी खाट वहां जमाई तो कलेण्डरनुमा ब्लैकबोर्ड को बिल्कुल सामने की दीवार पर लगाया और सुनहरे आकर्षक अक्षरों में लिख दिया - "यह घर बहुत हसीन है"।
लेखक - नीरज कुमार पाठक जी
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