भगवान श्रीराम का उच्चतम आदर्श
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम: आदर्श, आचरण और शाश्वत प्रासंगिकता
युगधर्म के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्री राम का अलौकिक अवतार हुआ। अपने उच्चतम आदर्शों और मर्यादित आचरण के कारण ही उन्हें 'मर्यादा पुरुषोत्तम' के रूप में मान्यता मिली। हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी, उनका यह अप्रतिम चरित्र महानता की पराकाष्ठा पर स्थापित है और वे आज भी जन-जन के परम आराध्य हैं। प्रभु श्रीराम, अयोध्यानरेश महाराज दशरथ और महारानी कौशल्या के ज्येष्ठ पुत्र थे।
अवतरण का उद्देश्य और स्वरूप
श्रीराम के धराधाम पर आने को कुछ लोग साधारण मनुष्य की भाँति जन्म लेना, कुछ प्रकट होना और कुछ लोग अवतार मानते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने 'रामचरितमानस' में इन तीनों ही रूपों को मान्यता दी है। नरनाट्य लीला की दृष्टि से, भगवान श्रीराम चैत्र मास की नवमी तिथि को मध्याह्न में अवतरित हुए।
"भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौशल्या हितकारी।"
"विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।"
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भगवान राम के अवतार लेने का एकमात्र हेतु अत्याचारी रावण का वध करना नहीं था, अपितु उनका धरती पर आगमन भक्तों के कल्याण और धर्म की स्थापना के लिए भी था।
आदर्श की पराकाष्ठा
कोई भी महापुरुष इस धरा पर आकर अपने आचरण और क्रियाकलापों से जो मार्ग स्थापित करता है, वह अगली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय हो जाता है। भगवान श्रीराम ने जीवन की हर भूमिका में आदर्श स्थापित किया है:
आदर्श पुत्र, भाई और पति:उनका प्रत्येक संबंध प्रेम, त्याग और धर्म से ओत-प्रोत है।
आदर्श शासक: वनगमन के समय जब प्रिय भाई भरत ने उन्हें वापस अयोध्या लौट चलने का बहुत अनुनय-विनय किया, तब भगवान राम ने राजधर्म का पालन करना उचित समझा और मधुर वचन कहे:
"मुखिया मुख सो चाहिए, खानपान कहुँ एक। पालइ पोसइ सकल अँग, तुलसी सहित विवेक।।"
अर्थात्, भरत तुम सब प्रकार से योग्य हो, पर देश, राजकोष, परिवार और प्रजा की रक्षा करना तुम्हारा दायित्व है।
आदर्श नारी के प्रति सम्मान: वनवास की अवधि में, अत्रि मुनि के आश्रम से विदा होते समय, मुनि पत्नी सती अनुसूया जी ने माता सीता को आदर्श नारी का जो संदेश दिया, वह संसार की स्त्रियों के लिए अनुकरणीय है:
"धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपदकाल परखिए चारी।।"
आततायियों के लिए प्रतिज्ञा
चित्रकूट छोड़ने के बाद राम जी ने आराम त्याग दिया और दण्डकारण्य में पर्णकुटी बनाई। वहाँ ऋषियों की हड्डियों का ढेर देखकर उन्हें ज्ञात हुआ कि नरभक्षी राक्षस तपस्वियों को मार देते हैं। इस हृदयविदारक दृश्य को देखकर उन्होंने तुरंत प्रतिज्ञा की:
"निसिचर हीन करुउँ महि, भुज उठाय प्रभु कीन्ह।"
आज जब भारत सहित विश्व के अनेक देश आतंकवाद से जूझ रहे हैं—जो आधुनिक 'निशाचर' हैं—तब प्रभु राम की यह प्रतिज्ञा सभी देशवासियों को आतंकवाद के समूल नाश के लिए प्रेरित करती है।
शासक के लिए नीतिगत सीख
जब अहंकारी रावण ने छल से माता सीता का हरण किया, तब भी श्रीराम ने नीति का महत्व नहीं त्यागा। प्रकाण्ड पंडित और वेदज्ञ होने के बावजूद, रावण का अहंकार उसके विनाश का कारण बना। रामचरितमानस में शासकों के लिए एक महत्वपूर्ण नीति बताई गई है, जिसका महत्व आज भी है:
"सचिव वैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज,धर्म, तन तीनि कर, होय बेगिहीं नास।।"
अर्थात्, यदि मंत्री, वैद्य और गुरु भय या लालचवश अप्रिय सत्य नहीं बोलते, तो राज्य, रोगी का शरीर और धर्म—तीनों का शीघ्र नाश हो जाता है।
मित्रता और राष्ट्रभक्ति का आदर्श
भगवान राम की मित्रता अद्वितीय थी। उन्होंने निषादराज, सुग्रीव और विभीषण को मित्र बनाकर मित्रता की पराकाष्ठा दिखाई। शत्रु रावण के प्रति भी उनका दृष्टिकोण कल्याणकारी था। अंगद को दूत बनाकर भेजते समय उन्होंने निर्देश दिया:
"काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई।।"
अर्थात्, ऐसी बातचीत करना, जिससे हमारा काम भी हो जाए और शत्रु का कल्याण भी। शत्रु के हित की बात सोचना श्रीराम के चरित्र को सर्वथा दुर्लभ बनाता है।
लंका विजय के बाद, रावण से जीती हुई सोने की लंका उन्होंने उसके भाई विभीषण को निःसंकोच दे दी। उनके मन में लोभ-लालच लेशमात्र भी नहीं था:
"जो संपति सिव रावनहि. दीन्ह दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि, सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।"
रामराज्य की कल्याणकारी अवधारणा
'रामराज्य' कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि है। राज्यारोहण के पश्चात उन्होंने उद्घोषित किया था कि यदि किसी नागरिक को लगे कि उन्होंने कोई अनुचित बात कही है, तो वह निर्भय होकर तुरंत उन्हें टोक दे:
"जौं अनीति कुछ भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।"
रामराज्य एक ऐसी संकल्पना है, जहाँ किसी को दैहिक, दैविक और भौतिक व्याधि भी न हो: "दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा।"
श्रीराम का राष्ट्र भारत एवं जन्मभूमि अयोध्या के प्रति सम्मान भाव भी अनुकरणीय है: "जन्मभूमि मम पुरी सुहावन। उत्तर दिसि बह सरयू पावन।।"
वर्तमान में श्रीराम की प्रासंगिकता
श्रीराम का चरित्र लोकमत या वेदमत, चाहे विद्वान हो या ग्रामीणजन—सभी को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। वे 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' को चरितार्थ करने के लिए अवतरित हुए।
सदियों की प्रतीक्षा के बाद, 22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में बालकराम के रूप में नव-निर्मित मंदिर में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा हुई। यह एक अँधेरे युग का समापन और एक नए युग का सूत्रपात है। यह अवसर राष्ट्रीय चेतना के जागरण का महापर्व सिद्ध हुआ।
श्रीराम का चरित्र आदर्श और मर्यादा के सांगोपांग निरूपण से ओत-प्रोत है। आवश्यकता है कि उनके उदात्त चरित्र की नैतिक मूल्यपरक शिक्षा बच्चों को बाल्यकाल से ही प्रदान की जाए, ताकि वे राम के आदर्शों को अपने जीवन में आत्मसात कर सकें।

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