
शिखा अर्थात चोटी रखने का है वैज्ञानिक महत्व
सनातन हिंदू धर्म में पुरुषों द्वारा सिर पर शिखा अर्थात चोटी रखने का विधान है।शिखा को हिंदुओं के एक सम्मानित प्रतीक चिह्न के रूप में मान्यता प्राप्त है। आज उनके सिरों पर से चोटी लगभग गायब हो चुकी है। वर्तमान में कुछ ही सनातन परंपरा के अनुयायी हिंदुओं, ब्राह्मणों या मंदिर के पुजारियों के सिर पर चोटी देखने को मिलती है। आज हिंदू लोग पाश्चात्यों के चक्कर में पड़कर केश विभिन्न शैलियों में कटवाने लगे हैं। कोई तो लंबे - लंबे बाल बढ़ा लेता है, तो कोई काट-छांट कराकर नन्हें करवा लेता है, किंतु शिखा कोई नहीं रखवाता। आज चोटी रखने वाले को उपहास का पात्र समझा जाता है। उपहास करने वाले यह नहीं समझते कि वे अपने ही हाथों हिंदू संस्कृति का त्याग और अपमान कर रहे हैं। बड़े दुःख की बात है कि आज हिंदू लोग अपने ही हाथों से अपनी शिखा काट रहे हैं। वस्तुतः यह मानसिक गुलामी का लक्षण है।
शिखा का स्वरूप
हिंदू संस्कृति में जब बालक पहले, तीसरे या पाँचवें वर्ष में आता है, तब प्रथम बार उसके सिर के बाल उतारे जाते हैं। इसको चूड़ाकर्म या मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार के पीछे शुचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना होती है।
मुंडन के समय सिर के बीचोंबीच छोड़ा हुआ बालों का एक गुच्छा 'शिखा' कही जाती है, जिसे फिर कभी नहीं कटवानी चाहिए। यह शिखा हिंदुओं का एक प्रतीक चिह्न है। इसका दूसरा अर्थ ज्ञान है तथा इसके रखने से ज्ञान की प्राप्ति होती है।
शिखा रखने का विधान वेदों में भी बताया गया है - शिखिभ्यः स्वाहा।
अर्थात चोटी धारण करने वाले का कल्याण हो। अथर्ववेद (19 - 22-15)
यश सेश्रियै शिखा।
अर्थात यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें। यजुर्वेद (19 - 92)
शिखा रखने का महत्व
भारतीय धर्म में मुंडन संस्कार ही शिखा स्थापन संस्कार है।जिसतरह सिखों में केश रखना आवश्यक माना जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को अपने मस्तिष्क रूपी किले के ऊपर हिंदू धर्म की ध्वजा 'शिखा' फहरानी चाहिए।
प्राचीनकाल में किसी की शिखा काट देना मृत्युदंड के समान घोर अपमान माना जाता था। आज चोटी को 'एंटीना' या 'एरियल' कहकर उपहास किया जाता है और अधिकांश हिंदू अब चोटी नहीं रखते हैं।
चोटी रखने का महत्व विदेशी जान गए, किंतु हिंदू भूल गए। आजकल विदेशी पुरूष लंबी चोटी रखने लगे हैं, भले ही उनका वह फैशन हमें अजीब लगता हो, किंतु है तो हिंदू परंपरा की चोटी का ही स्वरूप। हिंदू धर्म का छोटे से छोटा सिद्धांत, छोटी सी छोटी बात भी, अपनी जगह पूर्ण और कल्याणकारी है। छोटी - सी शिखा भी कल्याण और विकास का साधन बनकर अपनी उपयोगिता को दर्शाती है।
शिखा मनुष्य के सिर में मस्तिष्क का हृदय या अधिपतिमर्म(मर्मस्थल) होती है। यह वह क्षेत्र है, जहाँ पर व्यक्ति की समस्त नाडिय़ों का मेल होता है और यह अधिपतिमर्म स्थान ही शरीर को संतुलित करता है। शिखा स्थल को मस्तिष्क की नाभि कहा जाता है, इस पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती है।
शिखा हिंदुत्व की पहचान है। यह हमारे धर्म और संस्कृति की रक्षक है। शिखा का महत्व इसी से स्पष्ट है कि हिंदुओं ने यवन शासन में अपनी शिखा की रक्षा के लिए सिर कटवा दिए, किंतु शिखा नहीं कटवाई।
प्रख्यात डॉ हाय्वमन के अनुसार - ‘’भारतवासी हिंदू संस्कृति के अनुसार, बहुत काल से चोटी रखते हैं, जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता है। दक्षिण भारत में तो अपने सिर पर 'गोखुर' के समान चोटी रखते हैं। उनकी बुद्धि की विलक्षणता देखकर मैं प्रसन्न हूँ। ''
वैज्ञानिक डॉ आई. ई क्लार्क ने कहा है कि '' हिंदुओं का हर नियम विज्ञान से परिपूर्ण है। चोटी रखना हिंदू धर्म ही नहीं, सुषुम्णा के केंद्रों की रक्षा के लिए ऋषि-मुनियों की खोज का विलक्षण चमत्कार है'' ।
शिखा का वैज्ञानिक महत्व
सुषुम्णा के मूलस्थान को 'मस्तुलिंग' कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों - कान, नाक, जीभ, आँख, त्वचा तथा कर्मेन्द्रियों - हाथ. पैर, गुदा, इंद्रिय, वाणी, का संबंध मस्तुलिंग से है। मस्तिष्क और मस्तुलिंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं, उतने ही ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। मस्तिष्क ठंडक चाहता है और मस्तुलिंग गर्मी। इसके लिए शिखा रखना आवश्यक है। चोटी के लंबे बाल बाहर की अनावश्यक गर्मी या ठंडक से मस्तुलिंग की रक्षा करते हैं। शिखा में गांठ लगाने पर यह कवच की भाँति काम करती है। यह तीव्र गर्मी, सर्दी से स्थान को सुरक्षित रखती है और चोट लगने पर बचाव करती है।
पूजा-पाठ के समय शिखा में गांठ लगाकर रखने से मस्तिष्क में संकलित ऊर्जा - तरंगें बाहर नहीं निकल पाती हैं। इससे मानसिक शांति, सद्बुद्धि, सद्विचार आदि की प्राप्ति होती है तथा वासना की कमी, आत्मशांति में वृद्धि, शारीरिक रक्त-संचार, अनिष्टकर प्रभाव से मुक्ति, सुरक्षित नेत्र ज्योति, कार्यों में सफलता आदि अनेक लाभ मिलते हैं। शिखा सहस्त्रार चक्र को जाग्रत करने और शरीर, बुद्धि तथा मन पर नियंत्रण करने में सहायता करती है। शिखा को कसकर बांधने से मस्तिष्क पर दबाव बनता है जिससे रक्त का संचार सही प्रकार से होता है।
शिखा रखने के स्थान पर पिट्यूटरी (पीयूष) ग्रंथि होती है जिससे निर्मित रस पूरे शरीर और बुद्धि को तेज, संपन्न, स्वस्थ और चिरंजीवी बनाता है।
शिखा रखने से मनुष्य में धार्मिक, सात्विक और संयम की भावना बनी रहती है तथा नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है।
शिखा से संबंधित कुछ ध्यान रखने वाली बातें
-शास्त्रों के अनुसार संध्या विधि में, संध्या से पूर्व गायत्री मंत्र के साथ शिखा - बंधन का विधान है। यह सनातन परंपरा है।
-स्नान, दान, जप, होम, संध्या और देव पूजन के समय शिखा में गांठ अवश्य लगानी चाहिए। मंत्र उच्चारण और अनुष्ठान करने के समय भी शिखा में गांठ मारने का निर्देश है।
-व्यक्ति को लघुशंका, दीर्घशंका,मैथुन एवं किसी शवयात्रा को कंधा देते समय शिखा को खोल देना चाहिए।
संन्यास में शिखा का त्याग अपवाद है। सामान्यतः संन्यास का विधान 75 वर्षों के बाद होता है। तब आयु की वृद्धि हो जाने से शिखास्थान की त्वचा कठोर हो जाती है, तब शिखा छोड़ने पर भी कोई हानि नहीं होती है। संन्यास में अग्नि का त्याग होने से, उसके चिह्न शिखा का भी त्याग कहा गया है।
अस्तु, खेद की बात है कि प्राचीन वैज्ञानिक ऋषियों ने, अपराधियों के लिए जिस दण्ड की व्यवस्था की थी, उसे आज के सभ्य कहलाने वाले हिंदू स्वयं प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर रहे हैं, तभी वे चोटी कटवा दे रहे हैं। वस्तुतः यही कारण है कि आज के चारों ओर निराशा और मानसिक शिथिलता फैली हुई दिखाई दे रही है। वैज्ञानिक युग में यह पिछड़ेपन की निशानी है। मनुष्यमात्र का कल्याण चाहने वाली हिंदू संस्कृति आज नष्ट हो रही है। हिंदू स्वयं ही अपनी संस्कृति नष्ट करेगा तो रक्षा कौन करेगा। आज आवश्यकता यही है कि लोग हँसी उड़ाएँ या पागल कहें, तो सब सह लें, परंतु हिंदू धर्म - संस्कृति के प्रतीक शिखा का त्याग न करें और हिंदू धर्म का प्रधान चिह्न ससम्मान अपनाकर सिर पर शिखा रखवाना पुनः प्रारंभ करें। हम इसके लिए बच्चों और युवाओं को भी प्रेरित करें।
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