Bhartiya Parmapara

रिश्वतखोरी का अभिशाप

रिश्वतखोरी—जिसे बख्शीश भी कहा जाता है—एक राष्ट्रीय अभिशाप 
 

रिश्वत या फिर सरल शब्दों में घूस कह लें, इससे तो हर कोई परिचित होगा और यह किसी भी राष्ट्र या अच्छे समाज के लिए एक अभिशाप से कम नहीं हैं।  
सत्ता, शासन प्रशासन से लेकर हर क्षेत्रक के उच्चाधिकारी चाहे वह संगठित क्षेत्र के हो या असंगठित क्षेत्र के हो लगभग 90 फीसदी रिश्वतखोर ही भरे पड़े हैं।

यह निकृष्ट कृत्य सिर्फ आर्थिक उपहारों या धन का लेन देन ही नहीं है बल्कि यह वो कुप्रथा चली आ रही जिसने न जाने कितने गरीबों का अधिकार छीना है। अयोग्य को अवसर और योग्य को कष्ट और दुख दिया है। अब तो कोई भी सरकारी निःशुल्क कार्य को करवाने में भी बड़ी कठिनाई होती है क्योंकि बिना घूस के किसी की फाइल आगे नहीं बढ़ती। राष्ट्र के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक गरीब जो अपनी मूलभूत आवश्यकताओं यानी रोटी, कपड़ा और मकान से भी वंचित है वो भी रिश्वतखोरी का शिकार है। फिर तो व्यर्थ ही हैं सारी नीतियां सारी योजनाएं जो केवल दस्तावेजों में ही सुंदर दिखती हैं।

रिश्वतखोरी की शुरुआत और उसके कारण- 

 प्रायः देखा जाए तो रिश्वत खोरी में सिर्फ रिश्वत लेने वाले की गलती नहीं है बल्कि रिश्वत देने वाला भी अपराधी ही है। क्योंकि वही ऐसे मानक तय कर देता है जो उसके लिए तो आसान है पर अन्य लोगों के लिए मुश्किल। अगर वास्तविकता को समझें तो इस रिश्वतखोरी की शुरुआत उच्चवर्गीय धनाढ्य व्यक्तियों से ही होती हैं। क्योंकि उन्हें अपना काम हर हाल में करवाना होता है। कुछ ऐसे होते है जो अयोग्य होते हुए भी अवसर और उपलब्धि पाना चाहते हैं इसलिए वे उच्च आला अधिकारियों को घूस देकर अपने काम को करवा लेते हैं। और वहां का उच्चाधिकारी बिना यह विचार करते हुए कि इससे कई योग्य व्यक्तियों के अधिकार छिन जायेंगे, वह बड़े हर्ष से उस कुमार्गी धन को स्वीकार करता है। फिर वहां यह नियम बना दिया जाता है कि पहले निर्धारित रिश्वत देनी पड़ेगी तभी आपका काम पूर्ण या अग्रेसित किया जाएगा।  
लेकिन एक मध्यमवर्गीय या फिर गरीब व्यक्ति जिसने अपने मौलिक अधिकार भी नहीं सुरक्षित हैं वह इतने सारे धन कहां से लाए? और इसी कुप्रथा के चलते वे सभी लोग अपने उन अधिकारों से वंचित रह जाते हैं जिन पर वास्तव में उन्हीं का अधिकार था। पर समाज के ऊंचे तबके के किसी व्यक्ति द्वारा इस रिश्वत की कसौटी बना देने से उन्हें कष्ट और दुख का सामना करना पड़ रहा। क्योंकि अब वो अधिकारी तो हर व्यक्ति से रिश्वत की उम्मीद करेगा और चूंकि अयोग्य को अवसर देने के कारण योग्य व्यक्तियों के भी स्थान भर गए अब जगह और अवसर कम हैं और योग्य व्यक्ति की संख्या ज्यादा तो इसलिए ऐसी परिस्थिति पैदा की जाती है जिसे चाहकर भी एक गरीब या मध्यमवर्गीय योग्य व्यक्ति अपने अधिकार न पा सके सिर्फ पैसों के अभाव में। और शायद यह रिश्वतखोरी और बेईमानी हमारे देश में बेरोजगारी का सबसे मुख्य कारण है।  
कोई भी परीक्षा आयोजित होने से पूर्व ही उसके पेपर लीक हो जाते हैं या फिर जो वैकेंसी होती है उस के लिए पहले से ही लोगों को चुन लिया जाता है और उनसे पैसे ले लिए जाते हैं। फिर तो सारी परीक्षाएं निरर्थक ही हैं, और पेपर लीक होने की वजह से ऐसे व्यक्ति जिनकी परीक्षा अच्छी हुई है वे पुनः अपने उपलब्धि को पाने में चूक जाते हैं क्योंकि परीक्षा तो निरस्त हो जाती है, ऐसी कई बुराइयां हैं जो एक सभ्य समाज के लिए घातक हैं।

दुष्परिणाम -

रिश्वतखोरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम तो यही है कि योग्य से उनका अधिकार छिन रहा है पर ऐसे कई संदर्भ हैं जिनमें रिश्वतखोरी बड़ी भयावह साबित होती है। ऐसी कई परिस्थितियां होती हैं जिसमें एक घोर अपराधी सिर्फ रिश्वत के सहारे बच जाता है और किसी निर्दोष को दंड मिल जाता है, जो कि हमारे न्याय प्रणाली पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है।


उदाहरणतः देखा जाए तो हमारी प्रकृति जिसने हमें जीवनदान दिया है वो हम मनुष्यों के द्वारा बहुत शोषित हो रही है। और कुछ ऐसे व्यक्ति या उद्योगपति जिन्हें विकास के नाम पर रिश्वत देकर शासन प्रशासन से यह अनुमति मिल जाती है जिससे वे धड़ल्ले से इस पृथ्वी को नुकसान पहुंचा सके चाहे वे जंगल काटें, निरर्थक प्रदूषण फैलाएं, मूल भूत संसाधनों का दुरुपयोग, विस्थापन और निर्वासन का कारण बनें उससे किसी को कोई मतलब नहीं है। तो ऐसी कई विडम्बनाएं हैं जिनसे न केवल मनुष्य जाति बल्कि पेड़ पौधे, प्रकृति व अन्य जीव जंतु भी शोषित हैं और इन सबके पीछे अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं रिश्वतखोरी की सहभागिता तो है ही।

रिश्वतखोरी पर नियंत्रण -

बेशक कई प्रावधान बनने चाहिए जो वैधानिक रूप से इस अपराध पर नियंत्रण लगा सके। और यह अब बहुत ही अनिवार्य आवश्यकता बन गई है क्योंकि अगर इसे रोका न गया तो एक सभ्य समाज और राष्ट्र की परिकल्पना क्षीण हो जायेगी। परन्तु इन सबसे परे इसे रोकने का अब एक ही प्रयास हो सकता है और वो हैं हमारे "नैतिक मूल्य"। निश्चित ही इसमें बहुत समय लगेगा। परंतु इस कुप्रथा को रोकना ही पड़ेगा और प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होना ही चाहिए कि वह रिश्वत न दे। खासकर हमारे समाज के ऊंचे तबके के लोग जो विशेष रूप से इसे बढ़ावा देते हैं। उनके नैतिक मूल्यों और सभ्यताओं में परिमार्जन करके तथा साथ ही साथ शासन प्रशासन में बैठा उच्चाधिकारी द्वारा मानवीयता और ईमानदारी का मार्ग चुन कर ही इस कुप्रथा को रोका जा सकता है। 


कोई भी व्यक्ति जिनसे रिश्वत मांगी जाती हैं उन्हें नहीं देना चाहिए, और एक नागरिक होने के नाते उन्हें स्वयं भी इसकी शुरुआत नहीं करनी चाहिए। सबसे मुख्य मूल्य यही है कि हम अपने यथार्थ को स्वीकार करना सीखें अगर हम अयोग्य हैं तो उसको सहर्ष स्वीकार करें और अपने कौशल और ज्ञान को बढ़ाने में ध्यान दें न कि रिश्वत के सहारे किसी योग्य व्यक्ति के अधिकार को छीन लें। फिर यहीं से इस कुप्रथा की शुरुआत होती है और एक लंबी फेहरिस्त बनती चली जाती है। हर दिन एक नया दिन होता है, शुरुआत करने के लिए अभी देर नहीं हुआ हम आज से ही इसे रोक सकते हैं।

 

                                     

                                       

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