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हिंदी की उपेक्षा अर्थात संस्कृति की उपेक्षा | हिंदी : हमारी भाषा, संस्कृति और शक्ति


हिंदी हमारी भाषा ही नहीं, अपितु हमारी संस्कृति भी है। विश्व के 155 से अधिक देशों में हिंदी भाषियों की उपस्थिति से यह स्पष्ट है कि हिंदी कितनी लोकप्रिय और समृद्धिशाली भाषा है। हिंदी के नाम से लोग विदेशों में भारत को याद करते हैं और विशेष सम्मान प्रदान करते हैं। हिंदी भाषा ने ही देश और विदेश में भारतीय संस्कृति का केतु फहराया है। हिंदी और संस्कृति का सदैव से अन्योन्याश्रित संबंध रहा है।   
      
विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है और हिंदी उसकी सबसे दुलारी सुता है। हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और यह संस्कृत भाषा का ही सरल अनुवाद है। हिंदी को भले ही अन्य लोग मात्र भाषा मानते हों, किंतु हमें इतना तो समझना ही चाहिए कि यह हमारी आर्य संस्कृति भी है। हिंदी की उपेक्षा का अर्थ होगा, अपनी संस्कृति की ही उपेक्षा करना। हिंदी भारतीय संस्कृति की प्राण है क्योंकि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक उसकी राष्ट्रभाषा - मातृभाषा होती है। हिंदी भाषा हमारी भारतीय संस्कृति का श्रृंगार और आभूषण की भाँति सुशोभित है। हिंदी भाषा को समृद्ध करने में कबीर, सूर, तुलसी, नामदेव, भूषण, रहीम, मुक्ताबाई, मीराबाई, दयानंद, जायसी, रसखान, रैदास, जयशंकर प्रसाद, निराला जैसे संतों,देशभक्तों, कवियों और मनीषी विचारकों ने अभूतपूर्व योगदान किया है। उन्होंने हिंदी भाषा के माध्यम से आर्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। अनेक साधु - संत, धर्म प्रचारक, साहित्यकार आज भी हिंदी भाषा के माध्यम से संस्कृति को जनमानस तक पहुँचा रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली हिंदी, आज देश की सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता को सुदृढ़ कर रही है विविधता भरे इस देश में सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एकता लाने में हिंदी की भूमिका स्वयं सिद्ध है।

भारतीय संस्कृति के उत्थान में हिंदी का योगदान सदैव से उल्लेखनीय रहा है। हिंदी बहुत सरल, सहज, सुगम और बोधगम्य होने के कारण विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है। इसको विश्व भर के लोग बड़ी आसानी से समझने, बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा के रूप में जानी जाती है, जो हमारे पारंपरिक ज्ञान, संस्कृति और आधुनिक प्रगति के बीच एक सेतु बन चुकी है। आज विश्व की तमाम संस्कृतियाँ और भाषाएँ संकट से गुजर रही हैं, वहीं हमारी हिंदी भाषा, विश्व मनुजता को निकट लाने में लगी हुई है। उसके पास पहले से ही सांस्कृतिक परिवेश में सक्रिय रहने का पर्याप्त अनुभव है जिससे वह अपेक्षाकृत अधिक रचनात्मक भूमिका निभाने की स्थिति में है।

                                     

                                       

हिंदी विश्वव्यापी भाषा होने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की संवाहिका भी है। हिंदी अपनी आंतरिक चुनौतियों को स्वीकार कर विश्व भाषा बनने के निकट है। इसमें अन्य भाषाओं को आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता है। यह हिंदी भाषा और संस्कृति का ही आकर्षण है कि वर्षों पूर्व रोजी-रोटी की तलाश में विदेश गए 'गिरमिटिया' मजदूर अपनी भाषा और संस्कृति भी साथ ले गए जो आज भी उसी का गुणगान कर रहे हैं और स्वयं को भारतवासी मूल का होने पर गर्व का अनुभव करते हैं। हिंदी की रामकथाएँ आज भी विदेशों में दोहरायी जा रही हैं, रामलीलाएँ खेली जाती हैं, हिंदी फिल्में देखी जाती हैं और हिंदू पर्व - उत्सव मनाए जाते हैं। गर्व का विषय है कि अब विदेशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी की शिक्षा दी जा रही है। अमेरिका, रूस, सऊदी अरब जैसे देशों में हिंदू जीवन शैली एवं वेशभूषा अपनाई जा रही है और टीवी पर हिंदी चैनलों पर धार्मिक कार्यक्रम देखे जा रहे हैं।

हम अपनी संस्कृति की व्याख्या जितनी सुगमता से अपनी भाषा में कर सकते हैं, उतनी विदेशी भाषाओं में नहीं कर सकते। मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण हमारे देश में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी भाषा बन गई। इससे हिंदी भाषा की घोर उपेक्षा हुई और वह बहुत पीछे रह गई। फलतः देश में पश्चिमी संस्कृति छा गई। भारतवासी अपनी पुरातन आर्य संस्कृति को छोड़कर कर, पश्चिमी संस्कृति में डूब गए और स्वयं को भाग्यशाली समझ बैठे। जबकि यह सोच मात्र दिवास्वप्न ही सिद्ध हुआ, वे घर के रहे, न घाट के। अँग्रेजी भारतीय परिवेश के अनुकूल भाषा नहीं है, क्योंकि हमारे देश की प्रमुख भाषा हिंदी ही है। सत्य यह है कि यदि भाषा भ्रष्ट होती है, तो संस्कृति निश्चित रूप से भ्रष्ट हो जाएगी। आज हिंदी को 'हिंग्लिश' बना देने से अपनी संस्कृति भी अपमिश्रित हो गई है।   
        
नई शिक्षा नीति 2020 में इस विसंगति को दूर करने का प्रयास किया गया है और अब प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शिक्षा स्तर तक के पाठ्यक्रम हिंदी में निर्मित किए गए हैं। हिंदी शिक्षा को अनिवार्य बनाया जा रहा है। इस परिवर्तन से एक बार पुनः हिंदी का सम्मान बढ़ेगा और साथ ही भारतीय  
संस्कृति को पुष्पित - पल्लवित होने का सुअवसर मिलेगा।   
         
अँग्रेजी भाषा - संस्कृति से कोई व्यक्ति अच्छा अधिकारी, डॉक्टर या इंजीनियर तो बन सकता है किंतु सहजता, शालीनता, सादगी, उदारता, मितव्ययिता और शिष्टाचार के गुणों से भरपूर अच्छा नागरिक नहीं बन सकता। शासकों में अपने सुसंस्कार जीवित न होने के कारण ही देश में घपले, घोटाले, दमन, शोषण और भ्रष्टाचार का बोलबाला हुआ है। हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ व्यक्ति स्वयं को भारतीय न समझकर, विदेशी समझता है। अस्तु, राष्ट्रीय धरातल पर हिंदी की संग्राहिका शक्ति बढ़ाने से उसका सांस्कृतिक पक्ष मजबूत होगा।  निश्चित ही हिंदी भाषा के सतत विकास से, देश की सांस्कृतिक और भावात्मक एकता सुदृढ़ होगी।

                                     

                                       

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