
हिमाचल प्रदेश की बहुभाषी और अनूठी संस्कृति
हिमाचल शब्द दो शब्दों - हिम और अचल से मिलकर बना है, हिम का अर्थ बर्फ और अचल का अर्थ है पर्वत। अतः बर्फ के पर्वत को हिमाचल कहा जाता है। हिमाचल संज्ञा सार्थक भी है क्योंकि यहाँ ऊँची पर्वत की चोटियां बर्फ से सारे वर्ष ढकी रहती हैं।
हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत के पश्चिमी भाग में स्थित है। हिमालय पर्वत भारत की आस्था से गहराई तक जुड़ा है। इस पर्वत के साथ धर्म, भूगोल, इतिहास, संस्कृति, साहित्य और कला का अटूट नाता रहा है। कहते हैं कि हिमालय भारत के महादेव शिव जी की ससुराल है। भारतीय धर्म और संस्कृति का जन्मस्थान भी यही माना जाता है, जिसके कारण हिमाचल प्रदेश को 'स्वर्ग - भूमि', 'देव - भूमि', प्रकृति का अलौकिक दृश्य, 'ईश्वर का घर' आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है। यहाँ सेब का उत्पादन अधिकाधिक मात्रा में होने के कारण, इस प्रदेश को 'सेब राज्य' भी कहा जाता है। आधुनिक भारत में हिमाचल प्रदेश का नामकरण दिनांक 15 अप्रैल, 1948 ई 0 को हुआ था। अभी इसको केंद्र प्रशासित प्रदेश के रूप में मान्यता मिली थी, जिसको 25 जनवरी ,1971 को भारतीय गणतंत्र के 18 वें पूर्ण राज्य के रूप में मान्यता मिली।
हिमालयीन संस्कृति, भारतीय संस्कृति की मूलाधार मानी जाती है, क्योंकि भारतीय संस्कृति, हिमालय की उत्तुंग शिखरों और घाटियों में पुष्पित - पल्लवित होकर संपूर्ण भारतवर्ष में फैली और क्रमशः विकसित हुई। भारत के धर्मग्रंथों यथा वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि में इसका विस्तार से उल्लेख मिलता है। स्कंदपुराण में कहा गया है - "यह मनुष्य जो हिमाचल के विषय में सोचता है, भले ही वह उसे देखे न, उससे बड़ा है जो काशी में पूजा करता है और उसके सारे पाप दूर कर देगा। देवताओं के हजारों युगों में भी मैं उस हिमालय की महिमा का वर्णन नहीं कर सकता, जिसमें महादेव शिव निवास करते थे और गंगा भगवान विष्णु के चरणों से निकलकर वहीं से धरती पर अवतरित होती हैं।'' गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है - 'मैं पर्वतों में हिमालय हूँ'। हिमाचल प्रदेश भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा है और गौरवशाली हिमालयीन संस्कृति का अभिन्न अंग है।
हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में आर्य पूर्व और आर्योंत्तर संस्कृतियों का समन्वयन हुआ है। इन तथ्यों की पुष्टि उस विवरण से होती है, जिसके अनुसार यहाँ के गाँवों और नगरों के नाम पौराणिक देवी-देवताओं के नाम ऋषि-मुनियों के साथ जुड़े हैं, यथा मण्डी के साथ मांडव्य ऋषि, मनाली के साथ मनु, सुकेत के साथ शुकदेव, बिलासपुर के साथ व्यास, रेणुका के साथ ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका, भीमकोट के साथ भीम, वशिष्ठ कुण्ड के साथ वशिष्ठ ऋषि आदि के नाम गौरवान्वित करते हैं। किन्नर कैलास में आज भी शिव जी का वास - स्थल माना जाता है। हिमाचल का हर वर शंकर और हर वधू पार्वती स्वरूप कहलाती है।
हिमाचल के दिव्य सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग जैसे जन्म - संस्कार, वेशभूषा, रहन - सहन, आभूषण, रीति-रिवाज, लोकगीत, लोकनाट्य, कहावतें, मेले, त्योहार, धार्मिक मान्यताएं, भाषा, कला और साहित्य आदि में अपनी स्थानीय विशिष्टताएं हैं और संपूर्ण देश में अपनी पहचान रखती हैं।
हिमाचल अपने हस्तशिल्प के लिए विख्यात है। कालीन, चमड़े का काम, पशमीना शॉल, पेंटिंग, धातुकला,काष्ठकला और साज - सजावट वाले सामान बनाने के लिए विशेष प्रसिद्ध है।
हिमाचल प्रदेश की अपनी अनूठी बहुभाषी सांस्कृतिक पहचान है, जिसमें यहाँ की दैनंदिन गतिविधियां जैसे पूजा - पद्धति, हस्त - शिल्प और मंदिरों की स्थापत्य कला आदि के दिग्दर्शन होते हैं। यहाँ के रीति-रिवाज, यहाँ के क्षेत्र विशेष के कुनबों के अनुसार पृथक स्थान रखते हैं।
हिमाचल में शादी - विवाह एक पारंपरिक अनुष्ठान है, जो निकटतम और मित्रों की उपस्थिति में संपन्न किया जाता है। इसमें हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार दूल्हा और दूल्हन सात प्रतिज्ञाएं लेते हैं और एक-दूसरे को फूलोँ की माला पहनाते हैं। पुरुषों की शादी की पोशाक में एक लंबा कुर्ता और पगड़ी होती है तथा महिलाएं आभूषणों को धारण कर पूर्ण श्रंगार करती हैं और सुंदर लहंगा पहनती हैं। कन्यादान में दुल्हन का पिता अपनी बेटी को दूल्हे को सौंपता है। शादी में तीन चरण होते हैं - पिल्लन(सगाई), फेक्की(बेटरोल) और चक्की (विवाह)। हिमाचली विवाह में एक महिला को तीन आभूषण पहनने के लिए आग्रह किया जाता है। ये हैं - लाल चिप्पर(लाल शॉल), फ्यूरी(कान की बाली) और बुलोक(नाक की नथुनी)।
हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र जैसे लाहौल - स्पीति में शादियों में कुछ अजीब प्रकार के रिवाज प्रचलन में हैं। यहाँ बहन, भाई के लिए दूल्हा बनती है। फिर बड़ी धूमधाम से बारात लेकर भाई की ससुराल पहुँचती है। इसके बाद बहन, भाभी के साथ सात फेरे लेती है और नई दुल्हन को विदा कराकर घर लाती है। हिमाचल में लड़के का पिता, लड़की के पिता को उनकी शादी का खर्च भुगतान करता है, इसको 'धीर' कहा जाता है। किन्नौर, लाहौल और चंबा भागों में 'बहुपति प्रथा' चालू है यह क्षेत्र मूल आदिवासी संस्कृति की विरासत है। यहाँ जब लड़का किसी लड़की का अपहरण कर लेता है या लड़की अपने मंगेतर के साथ भाग जाती है तो उसे 'हर या झांझरारा' कहा जाता है। जब महिला नए पुरुष के साथ घर बसा लेती है तब भगवान शिव की विशेष पूजा
'जुआला' कहा जाता है।
लाहौल क्षेत्र में जब किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उसे कोई नहीं छूता, जबतक लामा, उसके कान में फूँक देकर 'फुहान' नहीं पढ़ता। मृत शरीर को लोहे या लकड़ी की कुर्सी पर दो या अधिक दिनों तक के लिए घर के एकांत में में रख दिया जाता है। उसके सामने एक दिया जलाकर रखा जाता है।
स्पीति क्षेत्र में मृत्यु पर लामा (झांवर) बुलाया जाता है। वह अपना ग्रंथ देखकर बताता है कि मृतक शरीर को जलाना है अथवा दफनाना है या किसी निर्जन स्थान पर। पशु - पक्षियों के खिलाने के लिए खुला छोड़ देना है।
किन्नौर में डुबांत (शव को नदी में डुबोना), भखांत(मृतक शरीर को पशु - पक्षियों के खाने के लिए निर्जन में फेंकना) या फुकांत (शरीर को जलाना) आदि मृत्यु संस्कार प्रचलन में हैं। श्मशान घाट पर लामा मृतक के बालों को पकड़कर 'फोआ' की रस्म करता है। तीसरे दिन 'छोल्या' और तेरहवें दिन ' दमको चांग' (अंतिम क्रिया की भाँति) की रस्में निभाई जाती हैं। वर्ष के बाद 'फुल्याव' या 'ढल्याँग' की रस्म पूर्ण की जाती है जो वारखी अर्थात बरसी की भाँति होती है।
तलहटी के क्षेत्रों में मृत्यु संस्कार देश के अन्य भागों की भाँति ही होते हैं। मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति को गाय के गोबर से लीप कर केले के पत्ते डालकर भूमि पर लिटाया जाता है। उसके मुँह में शहद, तुलसी दल, और सोना - चाँदी आदि की धातु डाली जाती है। जिन्हें 'पंचरत्ना' कहा जाता है। दसवें दिन कपड़े धोए जाते हैं, ग्यारहवें या तेरहवें दिन कर्म किया जाता है। हर मास 'महकी', वर्ष के बाद 'बरसी' तथा चार वर्ष में 'चबरख' की रस्म निभाई जाती है। इसके बाद प्रतिवर्ष श्राद्ध किया जाता है।
हिमाचल प्रदेश की लगभग 90 प्रतिशत जनता गाँवों में बसती है तथा शहरों में 10 प्रतिशत लोग ही रहते हैं। उनमें से अधिकतर लोग रोजी-रोटी कमाने हेतु शहरों में आ जाते हैं। इनमें प्रायः ग्रामीण क्षेत्र के लोग ही अधिक होते हैं। भारत के अन्य भागों की तरह यहाँ के ग्रामों और शहरों के लोग आधुनिकीकरण में रम गए हैं और उन्होंने अभिजात्य संस्कृति को अपना लिया है। अनेक जातियों और कुनबों में बँटे लोग यद्यपि शिक्षित हो रहे हैं तथापि जादू - टोना और अंधविश्वासों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। लोग प्रायः हिंदू या बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। जो अपनी परंपरागत मान्यताओं के अनुसार धर्म का निर्वहन करते हैं। केवल मुस्लिम गुज्जर ही मुस्लिम धर्म मानते हैं। सारा पहाड़ी जन - जीवन प्रकृति की रमणीक गरिमा से ओतप्रोत है। लोग सहृदय, प्रसन्नचित्त और मनमौजी प्रवृत्ति के हैं। उनमें धार्मिक सहिष्णुता के कारण वे तिथि - त्योहार, मेले, उत्सव और सामाजिक आयोजन मिलजुलकर एवं सोल्लास मनाते हैं, जिनमें हिमाचली संस्कृति का बढ़चढ़ कर प्रदर्शन होता है। हिमाचल की प्रमुख भाषा हिंदी, संस्कृत और पहाड़ी है, जिसमें बच्चों को प्राथमिक से लेकर उच्चतर शिक्षा प्रदान की जाती है। यहाँ की भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्यिक ग्रंथ रचे गए हैं और आज भी उत्कृष्ट साहित्य रचा जा रहा है। संगीत, लोक कला और लोकनाट्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। हिमाचल धरती का स्वर्ग है, यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अकल्पनीय और अनिर्वचनीय है।
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