Bhartiya Parmapara

गाय और इस्लाम: विश्वास, नियम और सम्मान

गाय :इस्लाम की दृष्टि से 


इस्लाम एक इब्राहीमी पंथ है जो एकेश्वरवादी है। इसका प्रादुर्भाव 7 वीं शताब्दी में अरबी प्रायद्वीप में हुआ। इस्लामी परंपरा के अनुसार इस संप्रदाय का सबसे प्राचीन और पवित्र धार्मिक ग्रंथ 'कुरान' है। इसके अनुयायियों का विश्वास है कि 'वेदों ' के ही समान इसके सारे अवतरण किसी के द्वारा लिखित नहीं अपितु श्रुत हैं।  
            कुरान का प्रथम अध्याय 'सूर - ए - फातिहा' के बाद ही 'सूर - ए - बक़र' है। इसका हिंदी अनुवाद 'जवान गायों का अध्याय' है। इस अध्याय में गौ के विषय पर विचार किया गया है।  
        कुरान के पहले समस्त अरब, तुर्की, मिश्र तथा अन्य मुसलमानी प्रदेश मूर्तिपूजक थे। वहाँ गौ की पूजा विधिपूर्वक होती थी। मिश्र के पिरामिड पर बैल की मूर्ति अंकित है तथा प्राचीन सिक्कों पर भी बैल की मूर्ति है। तात्पर्य यह है कि बछड़े और बैल मिश्र के राष्ट्रीय शुभ चिह्नों के प्रतीक थे। इस्लाम शब्द का अर्थ है 'किसी को दुःख न देना'। कुरान कहता है कि 'दया' धर्म का मूल है।ई 0 एच 0पामर ने कुरान का अँग्रेजी में अनुवाद किया है, उसके अनुसार उन्होंने निम्न तथ्य प्रस्तुत किए हैं -  

-बैल के सींग पर पृथ्वी है।  
-गाय का जूठा पानी पवित्र माना जाता है  
-खुदा ने पशुओं को तुम्हारा बोझा ढोने के लिए उत्पन्न किया है, भोजन के लिए नहीं। भोजन के लिए विभिन्न अनाज, फल, तरकारियाँ आदि उत्पन्न किए जाते हैं।  
-आदम और हव्वा जब स्वर्ग से निकाले गए तो उनको एक मुट्ठी गेहूँ और एक जोड़ी बैल मिले। - जो बैल को काटता है, वह उस आदमी की तरह है, जो मनुष्य को मारता है।  
-खुदा उसी पर दया दिखाते हैं जो उनके बनाए पशुओं पर दया दिखाता है।  
   अब्दुल रहमान (मौलाना फारुकी) ने अपनी पुस्तक 'वरकत और हरकत' में हजरत मुहम्मद के आदर्श वचन संकलित किए हैं। उसके अनुसार फारुकी लिखते हैं कि 'अच्छी तरह से पली हुई 90 गायों से सोलह वर्षों में केवल 450 गाएँ ही नहीं उत्पन्न होतीं, अपितु हजारों रुपयों की दूध - खाद भी मिलते हैं। अतः गाय धन की रानी है।' हजरत के दामाद अली और मुस्लिम संत को गोसी-ए-आजम की गाय के लिए इतना सम्मान था कि उन्होंने अपने जीवन में कभी गोमांस छुआ तक नहीं। यूनानी दवा की पुस्तकों में लिखा है कि' गाय का मांस बड़ा कड़ा होता है। वह जल्दी नहीं पचता। इससे उन्माद, पिठिया, घाव और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं।' हजरत उस्मान प्रथम हदीस साइस्ता में लिखते हैं कि 'गोश्त न खाओ। इसकी आदत शराब के समान हानिकारक है।'  
            मुसलमानी देशों में, जहाँ सब मुसलमान बसते हैं, गाय के प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। 1910 ई0 में मिश्र सरकार ने आदेश निकाला था कि ' कोई आदमी बकरीद के त्योहार पर एक भेड़ से अधिक किसी पशु का वध नहीं कर सकता। ' मध्य पूर्व एशिया में गो - हत्या प्रचलित नहीं है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के प्रधान मंत्री ने कहा था कि भारत में गाय की प्रतिष्ठा चंद्रमा और राजा के बराबर है। सन 1911 में अमीर हिंदुस्थान आए थे। दिल्ली के मुसलमानों ने उनके स्वागत में ईद के अवसर पर गाय मारना चाहा था तो अमीर ने बिगड़ते हुए कहा कि 'यदि गोवध करोगे तो हम वापस चले जाएंगे। ' 
          मुस्लिम धर्म के संस्थापक स्वयं मुहम्मद साहब ने गायों को 'पशुओं का सरदार' बतलाया है और उसका सम्मान करने की आज्ञा दी है। उन्होंने स्वयं कभी गाय की बलि नहीं दी और न आजतक कभी मक्का शरीफ में गोवध होता है। फिर भी भारत के कुछ अदूरदर्शी मुसलमान, जिस प्रेरणा से गाय के प्रेम को तिलांजलि देकर विष ग्रहण करते हैं, उसे धार्मिक प्रेरणा कैसे कहा जा सकता है? विचारशील मुस्लिम विद्वानों ने गोवध बंद करने के लिए कई बार (फतवा) व्यवस्था भी दिया परंतु उसके प्रचार में न हिंदुओं ने साथ दिया और न मुसलमानों ने।  
        'सुरात-ए-हज' में लिखा है कि खुदा तुम्हारी कुर्बानी में जानवर का मांस या रक्त नहीं चाहता। वह केवल तुम्हारी पवित्रता चाहता है। ' डॉ सुलेमान लखी के अनुसार - पहले बकरीद के अवसर पर धूप-दीप देने की प्रथा थी। पीछे नैवेद्य आदि। फिर पक्षी आदि का बलिदान। इसके बाद भेड़ - बकरे के रूप में यह प्रथा चली, जो आगे चलकर वर्तमान गोवध जैसी बर्बर प्रथा के रूप में परिणत हो गई। डॉ लीथर ने सन 1892 में 'एशियाटिक रिव्यू' पत्र में लिखा था - बकरे का हिंदुस्थानी नाम बकरा है। यह छोटी काफ है। यदि छोटी काफ है तो बकरा मारना हुआ। यदि बड़ी काफ है तो उसका अर्थ गाय हुआ। अरब में पहले ऊँट की बलि दी जाती थी। जब उनकी संख्या घटने लगी तब वहाँ वालों ने ऊँट मारना बंद कर दिया।  
      जब पहले-पहल मुसलमान भारत आए तो वे हिंदुओं की गोभक्ति देखकर आश्चर्य करते थे। जब सिकंदर ने भारत पर चढ़ाई की तब राजा पुरु द्वारा मानमर्दन होने पर इस देश से लौट गया और अपने साथ विशिष्ट जाति की एक लाख गौएँ लेता गया। इसी प्रकार जब पृथ्वीराज दिल्ली के सम्राट थे तब मोहम्मद गोरी ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। उसको देशद्रोही जयचंद ने ही वैमनस्यवश आक्रमण हेतु आमंत्रित किया था। मोहम्मद गोरी ग्यारह बार पराजित हुआ और प्राण - भिक्षा की याचना पर महाराज द्वारा छोड़ दिया गया। कहते हैं कि बारहवीं बार जयचंद के बताए तरीके से बारह सौ गाएँ सम्मुख लेकर लड़ने आ गया। इससे महाराज के तीर रुक गए और पराजय गले पड़ गई।  
           मुसलमान शासकों ने हिंदुओं के भावों का आदर करते हुए गोवध पर प्रतिबंध लगा दिया था। इतिहासकार हंटर के अनुसार - प्रारंभ में मुसलमान शासकों ने गोवध पर एक प्रकार का विशेष कर 'जज़ारी' लगा दिया था और जो बारह 'जेटल' तक कसाइयों से वसूल किया जाता था। यह कर दो सौ वर्षों तक जारी रहा और फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में कसाइयों के उपद्रव मचाने पर उठा दिया गया। मोहम्मद तुगलक के समय में गाय का मांस शाही बबरची खाने में नहीं जा सकता था। बर्नियर आदि विदेशी यात्रियों ने लिखा है कि उस समय गोवध मनुष्य - वध के समान दण्डनीय था तथा तत्कालीन मुगलों की भोज्य - सामग्री में गो - मांस की चर्चा नहीं है।  
             भारत का प्रथम मुगल शासक बाबर हुआ। मरने के समय उसने अपने पुत्र हुमायूँ के नाम एक पत्र लिखा था। इसमें उसने लिखा था कि 'प्रत्येक धर्म के नियम के अनुसार उसके साथ न्याय करना और विशेषकर गो - हत्या न करना, क्योंकि ऐसा करके ही तुम भारतवासियों के हृदय पर विजय पा सकोगे।' हुमायूँ ने अपने पिता के उपदेश का अक्षरशः पालन किया।  
          एक बार हुमायूँ ईरान जा रहा था। रास्ते में उनके सौतेले भाई कामरान और माँ रायकी बेगम का पड़ाव पड़ा। वहाँ भोजन करते समय भोजन में साग - तरकारी के साथ कुछ मांस के पदार्थ थे।खाने के पहले उसे संदेह हुआ कि गोमांस हो सकता है। पूछने पर पता चला कि गोमांस ही है तो कामरान को बहुत फटकारा 'अपनी पवित्र माँ को तू गोमांस खिलाता है। क्या तू चार बकरियाँ लेने में असमर्थ हो गया' और उसने वहाँ खाना नहीं खाया।  
        हुमायूँ का पुत्र अकबर भी हिंदुओं की भावना का बड़ा सम्मान करता था। वह गौ को पवित्र पशु मानता था। तत्कालीन लेखक अबुल फजल ने अपने ग्रंथ ' आईन-ए - अकबरी' में लिखा है कि' भारत में गाय माँगलिक समझी जाती है । गोमांस निषिद्ध और उसे छूना पाप समझा जाता है।' अकबर की एक गोशाला थी। वह वैष्णव था। अकबर ने अपने नवरत्न कवि नरहरि के सुझाव पर उसने आदेश जारी किया ' मनुष्यों के जीवन का आधार एक गाय - जाति ही है, अतः हमारे राज्य में गोहत्या की रस्म बिलकुल न रहे। जो इस आदेश का उल्लंघन करेगा। उसके हाथ और पाँव की अँगुलियाँ काट ली जाएँगी।' इस आदेश से गो - हत्या बंद हो गई थी। अकबर ने गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथजी को बहुत - सी भूमि और गाँव दिए थे, जहाँ उनकी गायों को चरने की सुविधा थी। उनके स्थानों के आसपास मोर आदि पक्षियों के शिकार पर भी प्रतिबंध था।  
           इस आदेश को अकबर के पुत्र जहाँगीर ने भी जारी रखा। यह प्रथा उसके पुत्र शाहजहाँ के समय भी चलती रही। औरंगजेब के समय में भी यह प्रथा उठाने का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। बहादुरशाह के शासन में भी व्यवस्था दी गई थी कि' मेरे अधीन समस्त राज्य में गोहत्या की रस्म बिलकुल न रहे। यदि किसी ने इसके विरुद्ध किया तो वह बादशाही कोप का भाजन बनेगा।'  
         मौलवी हैदरअली के पास अमृतमहाल जाति के साठ हजार बैल थे। उसकी गोशाला का प्रबंध उसका पुत्र टीपू सुल्तान करता था।  
      मुसलमानी शासन के अंत होने के बाद उसके विद्वानों ने गाय के संबंध में, जो समय-समय पर मत प्रकट किए हैं, उनमें से कुछ बहुत महत्वपूर्ण हैं -  

1-गाय की कुर्बानी करना इस्लाम - धर्म का नियम नहीं है। (हुमायूनी भाग पृष्ठ 360) 
2-बकरे और भेड़ की कुर्बानी गाय की कुर्बानी से अच्छी है। (दार - उल मुखतियार भाग पृष्ठ 228) 
3-न तो कुरान और न अरब की प्रथा ही गाय की कुर्बानी का समर्थन करती है। (हकीम अजमल खाँ)  
4-मुसलमान गाय नहीं मारे, यह हदीस के विरुद्ध काम है। (मौलाना हयात साहब)  
5-गाय की कुर्बानी मुसलमानी धर्म का नियम नहीं। (मियाँ छोटानी)  
6-मियाँ पोर मोटा साहब मांगरोल निवासी मुसलमानों के धर्मगुरु थे। उन्होंने अपनी गद्दी छोड़ दी और जीवनभर गोरक्षा का काम करते रहे।  
7-सहारनपुर के मुहम्मद उस्मान ने 'गावकशी और इस्लाम' नामक पुस्तक में कुरान शरीफ का अवतरण देकर गोवध के निषेध की पुष्टि की है।  
         मुसलमानों में अनेक ऐसे कवि भी हुए हैं जिन्होंने मुक्त हृदय से गोरक्षा का समर्थन किया है। इनमें रहीम, जायसी, कबीर के नाम उल्लेखनीय हैं।  
कबीर ने कहा है -  
मांस-मांस सब एक है, जस खस्सी तस गाय।  

     उन्होंने गोहत्या के लिए मुसलमानों को खूब फटकारा है -  
   
दिनभर रोजा राखते, रात हनत हैं गाय।  
एक खून एक बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।  

कविवर अकबर का निम्न पद गोरक्षा का समर्थन करता है -  
बेहतर यही है कि फेर ले आँखों को गाय से। क्या फायदा है रोज की इस हाय हाय से।  
कमजोरियों को रोग दें जोरों को क्या कहें?  
मुस्लिम हटें तो फौज के गोरों से क्या करें?  
मुँह बंद हो सकेगा मुसलमां शरीफ का।  
चस्का मगर न जाएगा साहब से 'बीफ' का।  

        सारांशतः स्पष्ट है कि गाय की कुर्बानी मुसलमानों की मजहबी  प्रथा नहीं है, अपितु उनके संप्रदाय में गाय का सम्मान करने की आज्ञा है और गोमांस भक्षण की निंदा की गई है। हमारे देश में मुसलमानों द्वारा गोवध, गोमांस भक्षण और गोमांस बिक्री का चलन अँग्रेजों और यहूदियों की देखा-देखी बढ़ा है, क्योंकि ईसाई और रोमन लोग ही इसका व्यवहार करते थे। आज हमारे देश में बकरे और भेड़ के स्थान पर गाय की बलि देना दुर्भाग्यपूर्ण है।  
        हमारे यहाँ मुसलमानों द्वारा हदीस और कुरान का सरेआम अनादर होता है, जबकि ईरान जैसे देशों ने मुस्लिम सिद्धांतों को ध्यान में रखकर  गोहत्या पर संपूर्ण प्रतिबंध रख दिया है। इसके विरुद्ध जो कुछ हमारे देश में हो रहा है, वह हिंदू - मुस्लिम विरोध चालू रखने के लिए ही होता है। हमारे यहाँ यदि सच्चे मुसलमान कुरान, विद्वानों और संतों के विचारों और आज्ञाओं का पालन करें तो हिंदू - मुस्लिम में प्रेमभावना सुदृढ़ रूप से स्थापित हो सकती है। हिंदू - मुसलमान मिलकर ही भारत से गोवंश की सुरक्षा करके  सुख - समृद्धि की स्थापना कर सकते हैं।मुसलमानों को चाहिए कि वे पैगंबर इस्लाम, जिन्होंने गाय की कुर्बानी को अनावश्यक और हमेशा अपने धर्म - विरुद्ध माना, की आज्ञा और भावना का सम्मान करते हुए गोवध प्रथा बिल्कुल बंद करें तथा गोवंश एवं सनातन संस्कृति की रक्षा में पूर्ण योगदान करें।  
 

                                    

                                      

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