
क्या सनातन धर्म अपने अनुयायियों को पाखंडी, अकर्मण्य, रूढ़िवादी और पिछड़ा बनाता है?
अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि सनातन धर्म अपने अनुयायियों को पाखंडी, अंधविश्वासी, अकर्मण्य, रूढ़िवादी, पिछड़ा और भाग्यवादी बनाता है। परंतु यह आरोप अज्ञान, पूर्वाग्रह और विकृत ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उपजा है। वास्तविकता यह है कि सनातन धर्म केवल एक आस्था नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक, तर्कसम्मत और समग्र जीवन-पद्धति है।
इसमें प्रकृति के पंचमहाभूतों की पूजा से लेकर पर्यावरण-संतुलन का संदेश समाहित है, जिसकी आज समूचे विश्व को आवश्यकता है। योग, आयुर्वेद, यज्ञ, वेदांत, गणित, खगोलशास्त्र—इन सबके माध्यम से सनातन धर्म मानव जीवन को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर संतुलित करने की प्रेरणा देता है। इसके मनीषियों ने चेतना, ऊर्जा और ब्रह्मांड के रहस्यों पर गहन चिंतन किया। वेदांत की "अहं ब्रह्मास्मि" जैसी अवधारणाएं आज के क्वांटम भौतिकी के सैद्धांतिक निष्कर्षों से साम्य रखती हैं। अतः यह धर्म किसी भी प्रकार की रूढ़ि नहीं, बल्कि तर्क, अनुभव और आत्मबोध पर आधारित एक वैज्ञानिक दर्शन है।
1. पाखंड के स्थान पर सत्य, विवेक और आत्मबोध का धर्म:
सनातन धर्म की मूल धाराएँ—वेद, उपनिषद, गीता, योग—सभी सत्य, विवेक और आत्मबोध को केंद्र में रखती हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में स्पष्ट कहा गया है—"सत्यं वद, धर्मं चर" अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो। संतों और योगियों ने हमेशा पाखंड और अंधानुकरण की आलोचना की है। कबीर, तुलसी, रविदास जैसे संतों ने आडंबर और जातिगत पाखंड पर तीखा प्रहार किया। स्वामी विवेकानंद ने स्पष्ट कहा—"अंधविश्वास ही हमारे पतन का सबसे बड़ा कारण है। धर्म को तर्क और अनुभव से जाँचो।"
2. पूजा नहीं, भाव प्रधान है सनातन साधना में:
सनातन धर्म में पूजा केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं, अपितु एक आंतरिक साधना है। श्रीमद्भगवद्गीता (9.26) में कहा गया है—"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति..." — यहां 'भक्त्या' अर्थात् भाव ही मुख्य है। देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ध्यान केंद्रित करने के साधन मात्र हैं, साध्य नहीं। उपनिषदों और वेदांत में ब्रह्म की उपासना निराकार रूप में भी स्वीकार्य है।
3. कर्मविहीन नहीं, कर्मयोगी बनाता है सनातन:
सनातन धर्म भाग्यवाद नहीं, कर्मयोग का संदेश देता है। गीता का प्रसिद्ध श्लोक—"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..."—कर्म के प्रति प्रतिबद्धता की प्रेरणा देता है। राम, कृष्ण, बुद्ध—सभी ने कर्म का मार्ग अपनाया और कर्मशील जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया। भाग्य को निर्णायक मानकर अकर्मण्य हो जाना सनातन धर्म की शिक्षा नहीं है।
4. सनातन धर्म स्थिर नहीं, गत्यात्मक है:
सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी गत्यात्मकता और आत्मसमीक्षा की शक्ति। यह समय के साथ चलने वाला धर्म है। उपनिषदों में ब्रह्म को निराकार कहा गया, भक्ति युग ने सामाजिक समता पर बल दिया, और आधुनिक युग में विवेकानंद, दयानंद, तिलक, गांधी जैसे समाज सुधारकों ने इसे युगानुकूल दिशा दी। यह धर्म परिवर्तन से नहीं डरता, बल्कि उसे आत्मसात करता है।
5. सनातन धर्म पिछड़ा नहीं, अग्रगामी बनाता है:
सनातन धर्म को पिछड़ेपन से जोड़ना औपनिवेशिक और वामपंथी दुष्प्रचार का परिणाम है। इतिहास गवाह है कि भारत ने चिकित्सा (आयुर्वेद), खगोल (ज्योतिष), गणित, दर्शन और योग के क्षेत्र में विश्व को दिशा दी। चरक, सुश्रुत, आर्यभट, भास्कराचार्य, पतंजलि जैसे वैज्ञानिक मनीषी इसी परंपरा की देन हैं। यह धर्म सृजनशीलता और अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है।
6.सनातन अंधविश्वास नहीं, तर्क और अनुभव की बात करता है:
सनातन धर्म में ज्ञान को सर्वोच्च माना गया है। उपनिषद कहते हैं—"आत्मनं विद्धि" (अपने आप को जानो)। गीता (4.39) कहती है—"श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्"। ज्ञान, तर्क और अनुभव के अभाव में ही अंधविश्वास जन्म लेता है। उपनिषदों ने अंधानुकरण नहीं, स्वानुभव और आत्मपरीक्षण को सत्य की कसौटी बताया है। यही कारण है कि चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन भी सनातन परंपरा में स्थान पाते हैं। गीता (3.26) में स्पष्ट निर्देश है—"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां...", अर्थात अज्ञानी में भ्रम न उत्पन्न करें, उन्हें यथार्थ कर्म के लिए प्रेरित करें।
निष्कर्ष:
सनातन धर्म किसी भी प्रकार के पाखंड, अकर्मण्यता, भाग्यवाद, पिछड़ेपन या अंधविश्वास को प्रोत्साहन नहीं देता। यह धर्म:सत्य, विवेक और आत्मचिंतन की राह दिखाता है;
कर्म और कर्तव्यनिष्ठा को सर्वोपरि मानता है;आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता को भी महत्व देता है।यदि कुछ अनुयायी भय, अज्ञान या रूढ़ियों में उलझे हुए हैं, तो वह दोष धर्म का नहीं, अपूर्ण समझ और विकृत पालन का है। सनातन धर्म शाश्वत इसलिए है क्योंकि वह सत्य, विज्ञान, अनुभव और मानव कल्याण पर आधारित है। यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
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