
भारतीय संस्कृति में निहित वैज्ञानिक तथ्य एवं उनकी व्याख्या –
हमारे संस्कार हमें मानव कोटि से बहुत ऊँचाई पर ले जाकर देवत्व तक पहुंचाने में समर्थ हैं। अतः यह कहना समुचित है कि संस्कारों की योजना व्यक्ति को नियमबद्ध एवं संयमित जीवन जीना सिखाती है। हमारे ये संस्कार पारिवारिक और सामाजिक स्वास्थ्य का समन्वय है। ये संस्कार मूलतः वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित हैं। संस्कारों की अनुपालना से समाज और राष्ट्र की नैतिक उन्नति हो, सफलता प्राप्त हो यही इनके मूल में छिपा है।
संसार में अनेक संस्कृतियों का उदय हुआ और वे अस्त भी हो गई परन्तु भारतीय संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है। भारतीय संस्कृति, वैदिक संस्कृति द्वारा शिक्षा प्रणाली को एक सुनियोजित ढांचे में सुव्यवस्थित किया गया है। जब एक देश की संस्कृति के बारे में कहते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एक मात्र वहां के राजाओं की संस्कृति है, धनिक व्यापारियों की संस्कृति है, पढ़े-लिखे विद्वानों की संस्कृति है। संस्कृति पर किसी का एकाधिकार नहीं, उस पर सबका सर्वाधिकार है। उस संस्कृति से राष्ट्र का प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित है, प्रदीप्त है।
राष्ट्र का हर नर-नारी उस संस्कृति का प्रतिबिम्ब है। संस्कृति मानव जाति की धरोहर है। उसकी प्रक्रिया कब, कहां प्रारम्भ हुई यह कहना कठिन है। उसका स्रोत मानव की प्रकृति से प्रगति की दिशा में जाने की नैसर्गिक प्रेरणा है। उसका केन्द्र एक विशेष व्यक्ति अथवा वर्ग नहीं हो सकता। उसका उद्भव और विकास नदी के समान है। गंगाजी का उद्गम गोमुख है किन्तु उस एक स्रोत से गंगा नहीं बनती। बंग सागर तक की उसकी दीर्घ यात्रा में वह कितनी छोटी-मोटी सरिताओं को साथ लेती है। विन्ध्याचल की सोनभद्र और हिमालय की गंडकी उसमें मिलती है।
संस्कृति की उत्क्रान्ति भी उसी प्रकार की है। भारतवर्ष की बात बताएं तो सहस्त्राब्द पूर्व के वैदिक महर्षियों को लेकर आधुनिक बहुआयामी प्रतिभा धनियों के समूह तक सभी इसके धाता, धर्ता, और कर्ता हैं। ज्ञानी, वीर, वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार, कवि आदि सभी अपने-अपने कर्तव्य से समाज के सम्मुख जीवन को उदात्त बनाने बनाने वाले शाश्वत मूल्य रखते गये। समाज उन मूल्यों को अनायास आत्मसात् करके सुसंस्कृत बनता गया। परिणामतः हर पीढ़ी स्वयं सुसंस्कृत बनकर संस्कृति के सृजन का हेतु बनी, जैसे पगडंडी पर चलने वाले ही उसके निर्माता बन जाते हैं। यहां यह समझना गलत होगा कि संस्कृति उस प्रक्रिया की अन्तिम परिणति है। वास्तव में संस्कृति परिणति नहीं, वह है गतिशील अनवरत प्रक्रिया। उसको कुरीतियों से मुक्त कर अभिनव मूल्यों को अपनाकर कालानुसार परिपुष्ट बनाने का दायित्व हर पीढ़ी का है। अन्ततः संस्कृति बदलती पीढ़ियों के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठित न बदलते मूल्यों का अविरल, अक्षय प्रवाह है।
हर पीढ़ी के मनोमालिन्य को मिटाकर उसको सत्यशुद्धि एवं भावशुद्धि से सम्पन्न करने की अद्वितीय क्षमता उसमें है। यहां तक कि आज भी भारतीय आर्य हिन्दू धर्म में धार्मिक कार्यों और संस्कारों में वैदिक मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। आज भी विवाह की वही पद्धति है जो हजारों वर्ष पूर्व भारत में प्रचलित थी। इस स्थिति में विद्यार्थियों को भारतीय संस्कृति में समाहित निम्न वैज्ञानिक तथ्यों को जानना आवश्यक है – सूर्य नमस्कार हिन्दुओं में सुबह उठकर सूर्य को जल चढ़ाते हुए नमस्कार करने की परम्परा है।
वैज्ञानिक तर्क के अनुसार पानी के बीच से आनी वाली सूर्य की किरणें जब आंखों में पहुँचती है, तब हमारी आंखों की रोशनी अच्छी होती है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि एवं घर की स्त्रियां व पुरुष प्रातः काल सूर्य को जल चढ़ाते हैं। इसमें जहाँ एक तरफ भारतीय संस्कृति ग्रन्थों को देवता मानकर सम्मान करती है वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक तथ्य यह है कि प्रातः कालीन सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ती हैं तो विटामिन-डी की प्राप्ति होती है और शरीर नीरोग रहता है। वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार प्रत्येक 11 वर्ष के अन्तराल में सूर्य मण्डल में विशेष हलचलें होती है। इन हलचलों को विज्ञान की भाषा में सौर ऊर्जा के तूफान भी कहा जाता है। इसके कई प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म प्रभाव भूमण्डल पर पड़ते हैं। सूर्य मण्डल में इस प्रकार की विशेष हलचल सन 2012 से 2014 के बीच होने का अनुमान अन्तर्राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र (नासा) के वैज्ञानिकों का है। इसी तरह 22 वर्ष में अन्तराल सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में भी परिवर्तन होता है। सूर्य मात्र आग का गोला नहीं है। उसके प्रभाव से धरती की तमाम पदार्थ परक और चेतना परक गतिविधियां चलती हैं। भारतीय ऋषियों के इस विचार से वैज्ञानिक भी सहमत हैं। अनेक अध्ययनों के आधार पर सिद्ध हुआ है कि सूर्य मण्डल में विशेष हलचलों के दौरान भूमण्डल पर भी विशेष हलचलें होती हैं। जैसेः- धरती के चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होना। वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि सूर्य के ध्रुवीय स्थानान्तरण के साथ पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में काफी गिरावट आने की संभावना होती है। इससे अनेक प्रकार के प्राकृतिक उलट फेर होते हैं। मनुष्य के चिन्तन पर इसका प्रभाव पड़ता है। अनजाने अनचाहे मानसिक असंतुलनों का सामना करना पड़ता है। इसका सीधा प्रभाव व्यक्तित्व तथा सामाजिक जीवन पर पड़ता है।
सूर्य का सीधा सम्बन्ध नाभि चक्र से है। नाभि चक्र का काया की ऊर्जा एवं आरोग्य से सीधा सम्बन्ध है। इसका सन्तुलन बिगड़ने से शरीर के ऊर्जा क्षय तथा रोगों के उभार की समस्या सामने आ जाती है। इन सब विसंगतियों से बचने तथा सौर ऊर्जा चक्र के प्रभाव का सकारात्मक उपयोग करने के लिए सूर्य उपासना अति आवश्यक है। सर्दी में व्यक्ति यदि अपने जीवन क्रम में बदलाव लाये तो जुखाम, जकड़न निमोनिया जैसे रोगों का आक्रमण होने लगता है। यदि जीवन क्रम उसके अनुकूल बनाये तो यही ठंड स्वाथ्यवर्धक बन जाती है। इसलिए सूर्य मण्डल में होने वाली हलाचलों के कुप्रभाव से बचाने के लिए सूर्य साधना बहुत लाभप्रद होती है।
सूर्य साधना के सूत्र :-
"ऊँ भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्’’
। ऊँ धृणि सूर्याय नमः।
- डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता जी,
प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, गंगापुर सिटी, (राज.)
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