Bhartiya Parmapara

शीतला सप्तमी व्रत कथा, पूजा विधि और महत्व

शीतला सप्तमी व्रत

स्कंद पुराण के अनुसार माँ शीतला दुर्गा और माँ पार्वती का ही अवतार हैं। ये प्रकृति की उपचार शक्ति का प्रतीक हैं। इस दिन भक्त अपने बच्चों के साथ माँ की पूजा आराधना करते हैं जिसके फलस्वरूप परिवार प्राकृतिक आपदा तथा आकस्मिक विपत्तियों से सुरक्षित रहता है। आदिकाल से ही भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को महाशक्ति के अनंतरूपों में से प्रमुख शीतला माता की पूजा-आराधना की जाती रही है। इनकी आराधना दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य विषाणुओं के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं। विशेषतः ज्वर, चेचक, कुष्टरोग दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे तथा अन्य चर्मरोगों से आहत होने पर माँ की आराधना इना रोगों से मुक्त कर देती है। यही नहीं व्रती के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो माँ शीतलाजनित ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं।   

इन्हीं की कृपा से देह अपना धर्माचरण कर पाता है बगैर शीतला माँ की अनुकम्पा के देह धर्म संभव ही नहीं है। ऋषि-मुनि-योगी भी इनका स्तवन करते हुए कहते हैं कि 

''शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।  
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः अर्थात- हे माँ शीतला ! 

आप ही इस संसार की आदि माता हैं, आप ही पिता हैं और आप ही इस चराचर जगत को धारण करतीं हैं अतः आप को बारम्बार नमस्कार है।   

मां शीतला का स्वरूप  

मां शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में झाडू होने का अर्थ है- लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। वहीं कलश में सभी तैतीस करोड़ देवी देवाताओं का वास रहता है अतः इसके स्थापन-पूजन से घर परिवार समृद्धि आती है। पुराणों में इनकी अर्चना का स्तोत्र 'शीतलाष्टक' के रूप में प्राप्त होता है, इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने जनकल्याण के लिए की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है।

माता शीतला की पूजा विधि 

माता शीतला की पूजा के लिए शीतला सप्तमी के दिन प्रातः काल स्नानआदि करके साफ़ कपड़ा पहन लें। व्रत रखकर माता शीतला की पूजा करें। ध्यान रहे कि इस दिन माता शीतला की पूजा के दौरान बासी खाने का भोग लगाया जाता है। पूजा करने के बाद गुड़ और चावल से बनी खीर का प्रसाद वितरण करते हैं। 

माता शीतला को बासी भोजन से लगाते हैं भोग  
मान्यता है कि सावन की सप्तमी पर शीतला मां की विशेष पूजा करने से व्यक्ति हमेशा स्वस्थ रहता है। माता शीतला के पूजन में बासी भोजन का भोग लगाया जाता है। माँ शीतला को बासी भोजन अर्पित करने की परंपरा इसलिए है क्योंकि यह शीतलता और उपचार शक्ति का प्रतीक माना जाता है। भक्त विश्वास करते हैं कि माँ को पिछले दिन का बना भोजन चढ़ाने से वे ज्वर, संक्रमण और गर्मी से उत्पन्न रोगों से रक्षा करती हैं। यह आस्था है कि शीतला माता रोग-दोष को दूर कर परिवार को स्वस्थ, सुरक्षित और सुखी बनाए रखती हैं। 

माँ शीतला के भोग में विशेष रूप से बिना अग्नि जलाए पिछले दिन का बना हुआ भोजन अर्पित किया जाता है। इसमें प्रायः ये चीज़ें शामिल होती हैं – पिछले दिन का बनाया खाना : पूरी, पराठे, रोटियाँ, चना, बाजरे या गेहूं ठंडी राब, दही, रायता या ओलिया, मीठा भोग जैसे गुड़-मक्की की लापसी, हलवा या बेसन की चक्की।

खास बात यह है कि इस दिन न तो चूल्हा जलाया जाता है और न ही ताज़ा भोजन पकाया जाता है, बल्कि ठंडे-बासी भोजन से ही माता को भोग अर्पित कर प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है।

मां शीतला की पूजा से मिलती है रोगों से मुक्ति 
शीतला माता की पूजा-अर्चना आदिकाल से ही सावन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को करते चले आ रहें हैं। माता शीतला महाशक्ति के अनंतरूपों में से एक प्रमुख देवी हैं। इनकी पूजा-आराधना करने से दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य विषाणुओं के द्वारा होने रोगों से मुक्ति मिलने की मान्यता है। मान्यता है कि माता शीतला के पूजन से माता शीतला विशेषतः ज्वर, चेचक, कुष्टरोग दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे तथा अन्य चर्मरोगों से मुक्त कर देती है। यही नहीं व्रत करने वाले के कुल में यदि कोई इन रोगों से पीड़ित है तो इनकी श्रद्धा भाव से पूजा करने पर इन रोगों से छुटकारा मिल जाता है।  

 

   

व्रत कथा  

एक बार शीतला सप्तमी के दिन एक बुढ़िया व उसकी दो बहुओं ने व्रत रखा। उस दिन सभी को बासी भोजन ग्रहण करना था। इसलिये पहले दिन ही भोजन पका लिया गया था। लेकिन दोनों बहुओं को कुछ समय पहले ही संतान की प्राप्ति हुई थी कहीं बासी भोजन खाने से वे व उनकी संतान बिमार न हो जायें इसलिये बासी भोजन ग्रहण न कर अपनी सास के साथ माता की पूजा अर्चना के पश्चात पशओं के लिये बनाये गये भोजन के साथ अपने लिये भी रोट सेंक कर उनका चूरमा बनाकर खा लिया। जब सास ने बासी भोजन ग्रहण करने की कही तो काम का बहाना बनाकर टाल गई। उनके इस कृत्य से माता कुपित हो गई और उन दोनों के नवजात शिशु मृत मिले।   

जब सास को पूरी कहानी पता चली तो उसने दोनों को घर से निकाल दिया। दोनों अपने शिशु के शवों को लिये जा रही थी कि एक बरगद के पास रूक विश्राम के लिये ठहर गई। वहीं पर ओरी व शीतला नामक दो बहनें भी थी जो अपने सर में पड़ी जूंओं से बहुत परेशान थी। दोनों बहुओं को उन पर दया आयी और उनकी मदद की सर से जूंए कम हुई तो उन्हें कुछ चैन मिला और बहुओं को आशीष दिया कि तुम्हारी गोद हरी हो जाये उन्होंने कहा कि हरी भरी गोद ही लुट गई है इस पर शीतला ने लताड़ लगाते हुए कहा कि पाप कर्म का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा।   

बहुओं ने पहचान लिया कि साक्षात माता हैं तो चरणों में पड़ गई और क्षमा याचना की, माता को भी उनके पश्चाताप करने पर दया आयी और उनके मृत बालक जीवित हो गये। तब दोनों खुशी-खुशी गांव लौट आयी। इस चमत्कार को देखकर सब हैरान रह गये। इसके बाद पूरा गांव माता को मानने लगा।

 

   

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