Bhartiya Parmapara

शब्द ही ब्रह्म है क्योंकि शब्दों से ही इस त्रिगुणात्मक संसार का सृजन संभव है

शब्द ही ब्रह्म है

 

शब्द ही ब्रह्म है क्योंकि शब्दों से ही इस त्रिगुणात्मक संसार का सृजन संभव है!

बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है - अहम ब्रह्मास्मि अर्थात् मैं ही ईश्वर हूँ।

शंकाराचार्य का अद्वैत दर्शन भी कहता है कि ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत असत्य तथा जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। सूफ़ी मत में भी यही कहा गया है, “अनलहक़” अर्थात् मैं ही सत्य अथवा ईश्वर हूँ। सूफ़ी मत का आधारभूत दर्शन “इब्नुल अरबी” का वहदतुल वुजूद अथवा तौहीद (एकेश्वरवाद) है। यह अद्वैत दर्शन का ही सूफ़ी संस्करण है। मंसूर हल्लाज का कथन अनलहक़, जिसके लिए उन्हें सूली पर चढ़ना पड़ा, भी अहम ब्रह्मास्मि का अरबी पर्याय है। कहीं मनुष्य को ईश्वर का अंश माना गया है तो कहीं उसे विस्तृत ब्रह्माण्ड का लघु रूप माना गया है।  
कहा गया है कि संपूर्ण सृष्टि की रचना ईश्वर की इच्छा मात्र से हुई है। वह अकेला था। उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ और उसके ये सोचते ही सृष्टि का निर्माण हो गया। इन विभिन्न विचारों के अनुसार यदि ईश्वर सृष्टि का रचयिता है तो उसका अंश होने के नाते मनुष्य भी सृष्टि का रचयिता ही हुआ। मनुष्य भी ईश्वर का अंश अथवा ब्रह्माण्ड का लघु रूप होने के कारण ऐसी ही क्षमता से परिपूर्ण है इसमें संदेह नहीं। उसमें भी वो शक्ति अवश्य ही विद्यमान है। कम से कम वो रचना अथवा विकास का माध्यम तो बनता ही है।

मनुष्य में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व या शक्ति है वो है उसकी विचारशक्ति। अपनी विचारशक्ति को मनुष्य शब्दों के माध्यम से ही प्रकट करता है। हर शब्द का एक निश्चित अर्थ होता है। वह अर्थ किसी आकार को प्रकट करता है। वह आकार ही रचना के मूल में होता है। अतः शब्द ही रचयिता है। शब्द भौतिक जगत में आकार है तो मानसिक जगत में भाव भी है। मन में जैसा भाव होता है वही शब्दों के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है, अतः भाव ही होता है, जो भौतिक जगत की वास्तविकता में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार से शब्द ही रचयिता हुआ।

सृष्टि की रचना ईश्वर का कार्य है, अतः जब शब्द रचना करने में समर्थ है, तो शब्द भी ब्रह्य ही हुआ। “शब्दब्रह्म”

संसार की रचना अथवा विस्तार के लिए कर्म अनिवार्य है और मनुष्य कर्म अपने विचारों के अनुरूप ही करता है। विचार पहले मन में भाव के रूप में उत्पन्न होते हैं और बाद में शब्दों का रूप ले लेते हैं। इसके बाद ही कर्म का प्रारंभ होता है, जिससे सृष्टि का निर्माण व विस्तार होता है।

वास्तव में यह संपूर्ण सृष्टि इस सृष्टि के वासियों की सामूहिक सोच का ही परिणाम है। शब्द को ब्रह्म कहने का तात्पर्य यही है कि हर सृजन के मूल में शब्द ही होता है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा हैं, पालक विष्णु हैं तथा संहारक शिव हैं। शब्द एक ऐसी सत्ता है जो तीनों का कार्य करने में सक्षम है। शब्द में असीम शक्ति है। शब्द भी अनेक प्रकार के हैं। शब्दों के भेद के कारण ही ये संपूर्ण संसार अपना हो सकता है या पराया हो जाता है। जीवन सुखमय हो सकता है या दुखमय हो सकता है। अच्छे शब्द अच्छा प्रभाव डालते हैं तो बुरे शब्द बुरा प्रभाव डालते हैं। सात्त्विक भावों अथवा शब्दों से सौहार्द में वृद्धि होती है तो तामसिक भावों अथवा शब्दों से ही वैमनस्य उत्पन्न होता है। इस त्रिगुणात्मक संसार की संपूर्ण संरचना के मूल में केवल सकारात्मक अथवा नकारात्मक भाव अथवा शब्द ही हैं। शब्द ही ब्रह्म अथवा सर्जक है, तो शब्दों के सही प्रयोग द्वारा संपूर्ण सृष्टि में संतुलन बनाया जा सकता है।

शब्दों के सही चयन के द्वारा आत्मघाती अथवा विनाशकारी सृजन को रोका जा सकता है। जो इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकता है वह सचमुच ब्रह्म ही है। शब्द ब्रह्म ही नहीं उससे भी कहीं अधिक है। अपेक्षित है तो उसकी शक्तियों का सदुपयोग। जिसे भी शब्दब्रह्म का ज्ञान हो गया वही सृजन की कला में समृद्ध व निष्णात हो गया। वह स्वयं ब्रह्म ही बन गया।

-सीताराम गुप्ता जी, दिल्ली

 

                                     

                                       

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