
जैसा कि हम जानते है हमारा देश त्योहारों का देश हैं, परंपरा और रीति रिवाजों और हरेक क्षेत्र में अलग-अलग त्योहारों का महत्व और तौर तरीके।
हम प्रत्येक त्यौहार बड़े उत्साह से मनाते हैं। नाग पंचमी से लेकर ऋषि पंचमी, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी और अनंत चौदस त्योहार के बाद बारी आती है, पितरों को तृप्त करने की श्राद्ध की। हमारी भारतीय संस्कृति अनूठी अद्भुत है। हमारी परंपरा हमे बड़ो का आदर और सम्मान करना सिखाती हैं। हम मृत आत्मा की शांति का भी पूरा ध्यान रखते हैं और कहते हैं कि ईश्वर कण-कण में बसता हैं तभी तो हम पशु पक्षियों का भी ख्याल रखते है। जहा हम भोजन बनाते समय सबसे पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी श्वान की बनाते हैं, और जब हम श्राद्ध करते है तब भी गाय, श्वान और कागा के हिस्से का भोजन निकालते हैं।
श्राद्ध का अर्थ -
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है।
सनातन मान्यता के अनुसार जो परिजन अपना देह त्यागकर चले गए हैं, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए सच्ची श्रद्धा के साथ जो तर्पण किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के देवता यमराज १६ दिन(श्राद्ध पक्ष)में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें।
माना जाता है कि पितृ श्राद्ध में अपने घर आते है। हमने भी देखा है जिस दिन अपने घर में किसी का श्राद्ध होता है, उस दिन अग्नि में भोग (धूप) लगाने से पहले घर के बड़े सदस्य कुछ खाते नहीं है। सबसे पहले अपने पितृ को भोजन धूप के रूप में (गोबर के उपले को अग्नि में जलाकर उसमें खाद्य सामग्री को रखते है) करवाते हैं फिर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं उसके पश्चात घर के सदस्य भोजन करते है। इन 16 दिनों में सिलाई एवं कुछ और कार्य नहीं किए जाते हैं। ऐसा मानते हैं पितरों को तकलीफ होती है। पितृ या पितर, जिस किसी के परिजन चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित हों, बच्चा हो या बुजुर्ग, स्त्री हो या पुरुष उनकी मृत्यु हो चुकी है उन्हें पितर कहा जाता है। पितृपक्ष में मृत्युलोक से पितर पृथ्वी पर आते हैं, और अपने परिवार के लोगों को आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की शांति के लिए उनका तर्पण किया जाता है। पितरों के प्रसन्न होने पर घर पर सुख शांति आती है।
कब बनता है पितृपक्ष का योग-
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व होता है। पितृपक्ष के 16 दिन पितरों को समर्पित होता है। शास्त्रों अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से आरम्भ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलता हैं। भाद्रपद पूर्णिमा को उन्हीं का श्राद्ध किया जाता है जिनका निधन वर्ष की किसी भी पूर्णिमा को हुआ हो। शास्त्रों में कहा गया है कि साल के किसी भी पक्ष में, जिस तिथि को परिजन का देहांत हुआ हो उनका श्राद्ध कर्म उसी तिथि को करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार यदि किसी को अपने पितरों के देहावसान की तिथि मालूम नहीं है तो ऐसी स्थिति में आश्विन अमावस्या को तर्पण किया जा सकता है। इसलिये इस अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। इसके अलावा यदि किसी की अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। ऐसे ही पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का श्राद्ध नवमी तिथि को करने की मान्यता है।
श्राद्ध क्यों करते हैं ?
श्राद्ध से जुड़ी पौराणिक कथा -
पौराणिक कथा के अनुसार, जब महाभारत युद्ध में महान दाता कर्ण की मृत्यु हुई, तो उसकी आत्मा स्वर्ग चली गई, जहां उसे भोजन के रूप में सोना और रत्न चढ़ाए गए। हालांकि, कर्ण को खाने के लिए वास्तविक भोजन की आवश्यकता थी और स्वर्ग के स्वामी इंद्र से भोजन के रूप में सोने परोसने का कारण पूछा। इंद्र ने कर्ण से कहा कि उसने जीवन भर सोना दान किया था, लेकिन श्राद्ध में अपने पूर्वजों को कभी भोजन नहीं दिया था। कर्ण ने कहा कि चूंकि वह अपने पूर्वजों से अनभिज्ञ था, इसलिए उसने कभी भी उसकी याद में कुछ भी दान नहीं किया। इसके बाद कर्ण को 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी गई, ताकि वह श्राद्ध कर सके और उनकी स्मृति में भोजन और पानी का दान कर सके। इस काल को अब पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है।
इस तरह इस तरह 16 दिन के श्राद्ध किए जाते हैं और पित्र देव को मनाया जाता है !
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