Bhartiya Parmapara

दुविधा – अनुभव और अस्वीकार्यता के बीच की दूरी

दुविधा

एक नए पड़ाव से शुरू हुई यात्रा फिर अगले पड़ाव की ओर उत्सुकता से देखती है। अनदेखे को देख लेने और अनजाने को जान लेने की इस लालसा में हम साल-दर-साल बीतते चले जाते हैं। पता भी तब चलता है जब हमें बीते हुए एक अरसा गुजर चुका होता है। बढ़ते बच्चों की बढ़ती काया और बदलते चले जाते खेत-खलिहान-मोहल्ला-पड़ोस-गांव-शहर मील के पत्थरों की भांति कहीं चुपके से हमें जतला जाते हैं कि हम अब काफी दूर निकल आये हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सफ़ेद हो आये बाल, थुलथुल शरीर और भृकुटियों से परिपूर्ण चेहरे हमें अनुभवी बनाने की बजाय अधेड़ या उम्रदराज बना जाते हैं।

हर औपचारिक-अनौपचारिक बैठक-महफ़िल में हम अपने अनुभवग्रस्त गाम्भीर्य को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं लेकिन नए लोगों की मौजूदगी में समां बांधने की हमारी हर कोशिश विफल हो जाती है। नए मिजाज के लोगों में हर समस्या को हल करने की क्षमता तो होती ही है, अपने आज को भरपूर जी लेने की प्रतिबद्धता भी होती है। आने वाला कल उनकी प्राथमिकताओं में शायद शामिल भी नहीं होता। बेलौस अंदाज और हर मुद्दे पर अपने प्रचुर ज्ञान की मदद से वे आत्मविश्वास से ओतप्रोत होते हैं। यह आत्मविश्वास उन्हें कठिन परिस्थितियों से तो उबारता ही है, भविष्य में घटनेवाली घटनाओं को सूंघ लेने की अंतर्दृष्टि भी देता है। किसी मरीज के अचानक गुजर जाने पर आयुर्विज्ञान से सम्बंधित उनकी सारगर्भित टिप्पणियां किसी भी प्रसिद्ध डॉक्टर को बगलें झाँकने पर मजबूर कर सकती हैं। पुतिन-बाइडेन-जेलेंस्की से लेकर नितीश-खरगे-शिवराज सिंह चौहान तक के दिमाग में चल रहे उथल पुथल का सजीव चित्रण जिस प्रकार से ये कर जाते हैं उससे पॉलीग्राफ टेस्ट की वैज्ञानिकता तक संदिग्ध हो जाती है।

नौकरी के बोझ तले कराहता और घिसट-घिसट कर चलता मेरा व्यक्तित्व उस दिन हतप्रभ रह गया जब मेरी एक कनिष्ठ सहकर्मिणी ने घोषणा की कि उसने हमेशा अपनी शर्तों पर नौकरी की। उसके इस अदम्य साहस पर इक्कीस तोपों की सलामी देने की इच्छा हुई लेकिन बॉस की उपस्थिति की वजह से सदा की तरह मन मार कर बैठ गया। मैं आत्ममंथन करने को मजबूर हो चला था कि आखिर मेरे कपाल पर ऐसा कौन सा असंसदीय शब्द खुदा पड़ा है कि मैं कभी अपनी शर्तों पर नौकरी न कर सका ? मैंने तो घर से लेकर दफ्तर तक जब भी अपनी शर्तों को जतलाने की कोशिश की, हमेशा मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मेरे खुद के बच्चे तक मेरी शर्तों पर बिफर पड़ते हैं। उनकी मुझसे बुनियादी असहमति है। मेरी बातें उन्हें विचित्र लगती है। चूंकि उन्हें हिंदी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिलता इसलिए मेरी सोच,चाल-ढाल और बातचीत को वे हमेशा रिडिकुलस करार देते हैं। रिश्तेदारी के लोग भी मेरी उपस्थिति को बहुत उदारता के साथ स्वीकार नहीं कर पाते और खिसक लेने के अवसर तलाशते रहते हैं।

 

   

योगाभ्यास के लिए जिस पार्क में मैं जाता हूँ उसके एक कोने में पड़ा एक परित्यक्त और मरियल सा कुत्ता मेरे निकट आने लगा है। गाहे-बगाहे मैं उसके लिए पारले-जी का छोटा पैक ले भी जाता हूँ परन्तु उसकी उसमें कोई खास रुचि नहीं होती। व्यावसायिकता के इस दौर में इस प्रकार के निर्व्यय सम्बन्ध दुर्लभ ही होते हैं। वह अपनी पनीली आँखों से मुझे अनुलोम-विलोम करते निहारता रहता है। मैं जब उसके निकट जाता हूँ या उसे स्पर्श करने की कोशिश करता हूँ तो उसमें कोई आक्रामकता नहीं होती। वह मुझे काट खाने को नहीं दौड़ता। उसने अपने कुछ प्रजातिजन्य गुणों की तिलांजलि देना श्रेयस्कर समझा। बहुत कुछ से गुजरने और बहुत कुछ खोने के बावजूद जीवन जीने की उसकी इच्छा अभी शेष थी और मुझमें उत्साह का नया संचार करती थी। मैं किसी वास्तविक या काल्पनिक चरित्र की तुलना इससे करके इस निरीह प्राणी का अपमान नहीं करना चाहता।

जमाना कब विषयनिष्ठ से वस्तुनिष्ठ हो गया, ये पता भी नहीं चला। मैं विषय की समग्रता में ही उलझा रह गया और यह सीख ही नहीं पाया कि सफल होने के लिए किन सारी चीजों को नजरअंदाज करना आवश्यक है। मैं अपने साथ घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना के दलदल में आकंठ डूबा धींगामुश्ती करता रहा और ढेर सारे दुर्बल कछुए फिनिश लाइन पर पहुँच कर इठलाने लगे। कुछ जो शरारती किस्म के थे वे ताने मारने से भी बाज नहीं आ रहे थे। वे पाठ्यक्रम को पुनर्परिभाषित करने की चेष्टा कर रहे थे। उनके साक्षात्कार सभी चैनलों पर प्रसारित हो रहे थे ताकि आने वाली पौध प्रेरणा ग्रहण कर सकें ! लगे हाथों मैं कुछ मीडियाकर्मियों से उलझ गया कि आख़िरकार ऐसे मौकापरस्त लोगों को प्रश्रय देकर वे किस प्रकार की नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं ? 

वरिष्ठ मीडियाकर्मी मेरे प्रश्नों को हैंडल करने की कोशिश कर ही रहे थे कि उनके युवा साथी इस तरह खिलखिलाने लगे गोया उन्होंने सर्कस का जोकर देख लिया हो। लगे बोलने कि पिटे हुए प्यादों को दिखाकर हम अपनी दुकानदारी बंद कर दें? हमारे बच्चे भी क्या लफ्फाजी से ही पल जायेंगे? दुनिया का तो चलन भी यही है कि टॉपर की चर्चा ही की जाती है, लूजर की कहानियों में किसी की दिलचस्पी नहीं होती। हारने वालों से तो सगे भी किनारा कर लेते हैं और जीतनेवालों के संग की सेल्फी हरेक के स्टेटस पे टंगी होती है !

ज्ञान के इस अविरल धार के समक्ष मैं नतमस्तक हो गया। हृदय से हार स्वीकार कर लिया और यह संकल्प भी ले लिया कि आजन्म अपनी वाणी को विराम देकर ही रखूंगा।

लेखक - नीरज कुमार पाठक जी

 

   

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |