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सहनशीलता का गिरता स्तर और समाज पर इसके हानिकारक प्रभाव | धैर्य और क्षमा का महत्व

सहनशीलता का गिरता स्तर

 

सहनशीलता का गिरता स्तर- समाज के लिए हानिकर  
आज भौतिकतावाद, एकाकी परिवार और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में सहनशीलता शनैः शनैः क्षीण होती जा रही है। है। इस समस्या के मूल में मूल्यों की अवमानना/ स्वार्थपरता की बढ़ती प्रवृत्ति/माता-पिता द्वारा उचित देखरेख में कमी/बुजुर्गों के सान्निध्य का अभाव आदि कारणों से इंकार नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर व्यक्ति अपना आपा खो देता है। तनिक से आवेश में ही बात लड़ाई- झगड़े व मार- पीट तक पहुँच जाती है। छोटी सी बात को भी सहन न करने के कारण दाम्पत्य जीवन में खटास बढ़ रही है। समाज पारिवारिक विखण्डन के दंश को झेलने के लिए विवश है। पारस्परिक संबंध वैमनस्य का सामना कऱ रहे हैं। रिश्ते-नातेदारी में दूरियाँ बढ़ रही हैं। पास-पड़ोस में अपनत्व क्षीण हो रहा हैं। उल्लेखनीय है कि सामान्य से प्रकरण में भी क्रोधित हो जाना और असहनशीलता का परिचयदेना वैयक्तिक/सामाजिक स्वास्थ्य को चिह्नित करता है।   
सहनशीलता का गिरता ग्राफ प्रबुद्धजनों के लिए चिंतनीय संदर्भ बनता जा रहा है। इसमें  कोई संशय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भी ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। ‘असहनशीलता’ के संभावित नकारात्मक प्रभाव से दूर रहने के लिए संचेतना आवश्यक है। निस्संदेह, आज के दौर में सामाजिक उत्कर्ष के निमित्त विचारों में सहनशीलता को प्रबंधित करना महत्वपूर्ण दिखाई देता है।

‘मनुष्यता’ की अभिव्यक्ति में सहायक है सहनशीलता। इससे व्यक्ति की सौम्य प्रकृति उद्घाटित होती है। इसमें ‘‘जियो और जीने दो’’ का आदर्श समाहित है। यह न तो किसी से सहमति है और न ही अन्याय के समक्ष तटस्थता। वस्तुतः यह तत्व मानवता के प्रति सम्मान है। निहित स्वार्थ और संकुचित सोच के ज्ञापक दूषित विचारों के विरुद्ध शांत प्रतिक्रिया है। यह संयमन का प्रकटीकरण है। सामाजिक ताने-बाने की मजबूती के लिए व्यावहारिक स्तर पर लचीलेपन की प्रस्तुति है। यह सामाजिक विखण्डन को रोकता है। सहन-शक्ति का आश्रय लेकर व्यक्ति/ परिवार/समाज में अनुकूलता का समावेश असंभव नहीं।  
सहनशीलता परिवेश में सकारात्मकता को प्रसारित करने में सहायक है। आर्ष मार्गदर्शन है कि दुष्ट प्रकृति वाले लोगों के अनर्गल बातों को सहन करना तथा श्रेष्ठ लोगों के सदाचरण में सदा संलग्न रहना ही समीचीन है-  
सद्भिः पुरुस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात्।  
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः।। महाभारत/आदि पर्व/अध्याय 87/श्लोक 10

सहनशीलता एक सांस्कृतिक विचारणा है जिससे समाज में व्यक्ति की संस्थिति निर्मित होती है। सामाजिक सौहार्द को विस्तारित करने में सहनशीलता की महत्वपूर्ण भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। इसके सुप्रभाव में प्रतिकूल परिस्थितियों के मध्य भी अनुकूलता की संभावना निहित है। यह सद्गुण उग्रता को शांत करता है है। वस्तुतः किसी के विचार/व्यवहार को असहमति के पश्चात् भी सहजता से सहन कर लेना स्वयं में शांति का आधार बनता है। इस तरह सहनशीलता की कथित उपलब्धि सामान्य तो नहीं।

यह वैशिष्ट्य मानव संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों का प्रकटीकरण करता है। जटिल स्थितियों को संभालने का सामर्थ्य रखता है। विसंगतियों को सुसंगत बनाता है। सह-अस्तित्व में सहायता करता है। सामाजिकों में आत्मीयता को बढ़ावा देता है। आत्मनियंत्रण में सहायता करता है। परिवार, रिश्तेदार, मित्र, पास-पड़ोस में सामंजस्य बढ़ाता है। इस तरह परिवेश में शांति-सद्भाव-सौहार्द को प्राथमिकता देता है। संवेदनात्मक दृष्टिकोण रखने के कारण मानवता के संरक्षण में प्रभावकारी है। निस्संदेह, सामाजिक स्वरूप में रचनात्मक परिवर्तन की संभावनाओं को देखते हुए इसे प्रयोजनीय कहना उपयुक्त है।

समाज में व्याप्त विसंगतियों से सामना होना तो जीवन की स्वाभाविक स्थिति है। किंतु सहनशीलता का सहारा लेकर बहुविध जटिलताओं को सुलझाना- चुनौतियों का सामना करना- द्वेष विद्वेष का परिहार करना जीवन का सौंदर्य है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव जीवन में व्यष्टि व समष्टि स्तर पर अच्छे संबंधों की आवश्यकता होती है और सहनशीलता इसमें कारगर है। यह मनुष्य के लिए आभूषणवत् है जो उसकी सामाजिक संस्थिति को निर्मित करती है। संसार यात्रा को सुगम बनाता है सहनशीलता का आश्रय। धैर्य और संयम को बढ़ावा मिलता है इससे। व्यक्तित्व को विनम्र बनाकर  समाज के संस्करण व परिष्करण की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है।

 

   

सहिष्णुता, क्षान्ति, तितिक्षा सहनशीलता के ही अपर पर्याय हैं।  
सनातन संस्कृति से हस्तगत यह अवधारणा का मानवता के संरक्षण में योगदान देती है। जटिल परिस्थितियों को नियंत्रित करने में सहनशीलता महत्वपूर्ण भूमिका रचती है। हां, यह अवश्य है कि सहनशील व्यक्ति में शांति और संतोष का व्यापन एक स्वाभाविक उपलब्धि है। यह वैचारिक संघर्ष को रोक सकती है। तनाव को दूर कर सकती है। सहनशीलता एक शक्ति है। इसकी सकारात्मक ऊर्जा जीवन में आने वाले उतार- चढ़ाव का सामना करने में सहयोग करती है।

वर्तमान में ’’सहिष्णुता’’ शब्द का कुछ अर्थभेद के साथ तात्पर्य है- दूसरों के कार्यों और विचारों के प्रति उदार भावना रखना। सहनशीलता के सुप्रभाव में व्यक्ति दूसरों के विचार-विश्वास-व्यवहार के प्रति सम्मान का भाव रखता है। यह व्यक्ति को उग्र प्रतिक्रिया से विरत करता है। सहनशीलता आपसी व्यवहार में विनम्रता को संरक्षित करती है।

‘क्षान्ति’ शब्द सहनशीलता के लिए प्रयुक्त होता है। सामर्थ्यवान होते हुए भी अपराधी के प्रति किसी भी प्रकार का दण्ड का भाव न रखना ही क्षान्ति है। श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लिखित है कि-  
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।  
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।श्रीमद्भगवद्गीता/13/7  
क्षान्ति सह-अस्तित्व में भी मददगार है।  
‘‘तितिक्षा’’ मन की एक वृत्ति है। इसका तात्पर्य है- परापराधसहनम् (दूसरों का अपराध सहन करना) इसकी विद्यमानता को विशिष्टता के रूप में स्वीकार किया गया। महर्षि व्यास का स्पष्ट अभिमत है कि-  
अक्रोधनो क्रोधनेभ्यो विशिष्टस्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः।  
अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधानाः विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः।। महाभारत/आदि पर्व/अध्याय 87/श्लोक 6

अनेक दुर्गुणों में ‘अतितिक्षा’ (सहनशीलता का अभाव) का भी उल्लेख किया गया। इन पर नियंत्रण पाने के लिए विवेक की- संयम की- नीति की जरूरत होती है। किंतु जब गुणों से युति बन जाती है तो वह व्यक्ति सामान्य मनुष्य की तुलना में ‘विशेष’ (उत्कृष्ट) माना जाता है। जीवन की श्रेष्ठता में गुणों की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता। निश्चय ही विवेकी जन इस सद्गुण की महत्ता को अंगीकार कर जीवन को सरल बनाते हैं।

सहनशक्ति में आक्रोश/आवेश को नियंत्रित करने की योग्यता है। प्रायः देखा जाता है कि जब दूसरा पक्ष किसी कटुता को सहन कर लेता है तो अपराध करने वाला पक्ष असफल होने का दंश झेलता है। सद्ग्रंथ असहनशीलता के अवांछित प्रभाव से सचेत करते हैं कि-  
आक्रुष्यमानो नाक्रोशेनमन्युरेव तितिक्षतः।  
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।। महाभारत/आदि पर्व/अध्याय 87/श्लोक 7

यहां सहनशीलता को अपनाना विहित है। ‘मनुष्यता’ के नाते किसी की निंदा- अपशब्दों की प्रतिक्रिया निंदा- अपशब्दों से करना समीचीन नहीं। ऐसे वाग्वाण हृदय को आघात पहुंचाते हैं। दुष्ट जनों के मुख से निःसृत सदोष वचन शोक के कारक बन जाते हैं। अतः विवेकी पुरुष द्वारा दूसरे के प्रति ऐसी वाणी व व्यवहार से विरत रहना तथा श्रेष्ठ पुरुषों के सदाचार का आश्रय लेकर सद्व्यवहार करना श्रेयस्कारी है।

कथित स्थिति में सहनशीलता अपनाने से आचार व व्यवहार में आने वाली बाधाओं में कमी देखी जाती है। पूर्वोक्त श्लोक में कहा गया कि यदि शब्दों के द्वारा आक्रोशित किया जा रहा हो तो उसको सहन कर लेना चाहिए, ऐसा करना आक्रोश पैदा करने वाले को ही जला डालता है। ध्यातव्य है कि महात्मा बुद्ध तथा महर्षि दयानन्द के जीवन की अनेक घटनाओं ने उक्त संदर्भ को सुपुष्ट किया है। सहनशीलता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है- क्रोध। क्रोध के वशीभूत व्यक्ति अभावात्मक सोच से मुक्त नहीं हो पाता, इस कारण मन-मस्तिष्क का दुःख-तनाव-विरोध-उग्रता आदि से आच्छादित होना अचम्भे की बात नहीं। कथित आवेग को विलम्बित कर इस पर नियंत्रण में कुछ सीमा तक सफलता पाई जा सकती है। असहनशीलता एक नकारात्मक वृत्ति है, इसके बिना कई बार व्यक्ति बेचैनी को जीता है। कभी-कभी इस वजह से मन व शरीर के लिए कष्टकारी स्थिति निर्मित हो जाती है। सामाजिक पर्यावरण में सुधार की दृष्टि से विचारों में सहनशीलता को प्रश्रय देना सामयिक आवश्यकता है।

सत्संगति- सद्विचार- सद्भावना आदि के माध्यम से सहनशीलता की दिशा प्रशस्त होती है। सामाजिक परिवेश के स्वास्थ्य की दृष्टि से इसे सशक्त साधन कहना अत्युक्ति नहीं। संदर्भित जागरूकता से सामाजिक स्वरूप को बेहतर बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। नवागत पीढ़ी को सहनशीलता की महत्ता से अवगत कराना उचित है। व्यक्ति/ समाज में रचनात्मक बदलाव के लिए सहनशीलता की व्यावहारिक रूप आवश्यक है। ध्यातव्य है कि सहनशीलता की कमी समाज की एकता में अवरोध डाल सकती है। अन्ततः समाज/राष्ट्र के समुज्ज्वल भविष्य के महत्वाकांक्षी उद्देश्यों की पूर्णता के निमित्त भी इस ओर ध्यान देना युक्तियुक्त है।

लेखक - प्रो. कनक रानी जी

 

 

 

   

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