भारतीय परम्परा

(CA) RUKMAN JI LADHA

Rukman Ladha
Rukman Ladha
पीहर के आँगन से ससुराल के महलों तक का सफर ........मेरी आत्मकथा।

ये गुज़रा सफ़र यादों के पन्नों से भरी इक पहेली ही तो है।स्मृतिमय मन उड़कर बचपन की चौखट पर जा पहुँचा।दिल में क़ैद बचपन के ख़ूबसूरत लम्हों की अमानत ने यादों के झरोखों में दस्तक दे अतीत की घटनाओं की झड़ी लगा दी।“गढ़ तो चित्तौड़गढ़,बाक़ी सब गढ़ैया”।चौरासी ताल,आलीशान महलों व मंदिरों से सुसज्जित अजेय योद्धा सा खड़ा,वीरों का सिर-मोड़,हज़ारों वीरांगनाओं के जौहर व सूरमाओं की बलिदानी गाथा कहता ये विशाल दुर्ग ही मेरी जन्मस्थली है।संघर्ष से उठे व्यावसायिक,संभ्रांत,बड़े परिवार की मैं सबसे छोटी लाड़ली संतान थी।माँ के हाथ के व्यंजन,कैरी के आचार व क़िले के सीताफलों के स्वाद का कोई सानी नहीं।
परिवार में उमंग से मनते त्योहारों व श्रावण में पींगे चढातीं,खिलखिलाती सखियों की रौनक,नाचते मयूर व मुँडेरों पर दौड़ते बंदरों के दृश्य आज भी आँखों के सामने जीवंत आ खड़े होते हैं।परिस्थितिवश बाऊजी ज़्यादा नहीं पढ़ पाए थे लेकिन हमें उच्च शिक्षा के भरपूर अवसर दिए व हौसला अफ़्जाई भी की।पांचवीं के बाद की शिक्षा घर से थोड़ा दूर शहर के स्कूल-कॉलेज में हुई।इस बढ़ती दूरी ने एमएससी करने दूर बनस्थली विद्यापीठ के नए माहौल में पहुँचा दिया।शुरू में मन ना लगना स्वाभाविक था मगर धीरे-धीरे सामंजस्य होता गया।अगला पड़ाव था पीएचडी के लिये राजस्थान यूनिवर्सिटी का रसायनविभाग।संकोचयुक्त शब्दों में बताऊँगी कि पढ़ाई में संजीदा होने से मैं गुरुजनों की सदैव ही प्रिय रही।आत्मविश्वास से जीना व ज़रूरतमंदों की मदद करना माँ-बाऊजी ने बिन कहे सिखलाया।

समय पंख लगा तेजी से उड़ रहा था।मई 1984 में नए स्वप्नों संग छूटी बाबुल के आँगन की मस्ती व पीएचडी की उम्मीद भी।ससुराल की दहलीज़ में प्रवेश के साथ वहाँ के तौर-तरीकों में जल्दी ही रम गई।परिवार के सपनों को साकार करने पति मायानगरी बम्बई में कार्यरत थे।महानगर की ज़िंदगी से रूबरू होने का वक़्त आ गया।अंधाधुंध चकाचौंध व अजनबी चेहरों संग सामना हुआ दड़बेनुमा मकान,अथाह उमड़ती मगर अनुशासित भीड़,मद्धिम प्रदीप्तमान फ़लक,लाइफ लाइन लोकल ट्रेन्स से.......ज़िंदगी जैसे थमती ही नहीं।1985 में जीवन बगिया में खिली नन्ही कली की महक ने मातृत्व की मीठी अनुभूति दी।घर परी की किलकारियों से गूँज उठा।

पीएचडी पूर्ण करने का ख़याल मन की सीढ़ियाँ चढ़ता-उतरता रहा मगर सी.ए.की जीवनसंगिनी होने के नाते सी.ए.करने का मशविरा मिला।छोटी बच्ची को संभालकर ये मुश्किल इम्तिहान उत्तीर्ण करने में कड़ी मेहनत व लगन रंग लाई।1992 में बेटे की किलकारियों से आँगन फिर चहका।जीवन है तो सुख-दुःख में भी धूप-छांव समान इक दूजे से आगे बढ़ने की आपाधापी होना लाज़िमी है।दादीमाँ,माँ-बाऊजी,तीन भाई व भाभी एक-एक कर अनंत यात्रा पर चल दिये।ज़िंदगी थमी नहीं लेकिन रिक्तता सी आ गई।बच्चों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की।बिटिया ब्याह के विदेश में बस गई व बेटा भी नौकरी में व्यस्त हो गया।ये कारवाँ यूँ ही जीवन के मोड़ों का साक्षी बनता गया।

वक़्त तेज़ रफ़्तार मुठ्ठी में भरी रेत सा फिसलने लगा।ज़िम्मेदारियों से निवृत हो कैरियर के अनुसरण की चाहत फिर से जागी लेकिन चाहतों से प्रारब्ध नहीं बनता।कुछ ख़्वाहिशें हक़ीक़त स्वीकारके ख़्वाब बन गई,इनमें रंजिशें कुछ भी ना थी।कुछ कर गुजरने की ललक ने नई राहें तलाशने के जुनूँ की लौ मद्धम ना होने दी।मेट्रीमोनियल समाज सेवा ने एक पहचान दी।इसी दौरान योग प्रशिक्षण भी लिया था व गणित पसंदीदा विषय रहा ही तो कुछ वर्ष ये सिखाने में भी हाथ आज़माया।जूझने का ये जज़्बा जन्मभूमि की माटी की देन है जिसकी महक आज भी दिलो-दिमाग़ में रची बसी है।ये पंक्तियाँ मेरे दिल के बहुत क़रीब हैं-
"मुसाफ़िर हूँ यारों,मुझे चलते जाना है,
एक राह रुक गई,तो और जुड़ गईं।”


ज़िंदगी की जद्दोजहद से मिली सीख इन पंक्तियों में पेश करना चाहूँगी-
“रख भरोसा ख़ुद पर,तलाशें राहें नदी समान, कर समर्पित शिद्दतें,कोलाहल प्रभु चरणन, जियें मस्ती में झूमते जंगली दरख़्तों समान।।” 🙏🌹💐🌹🙏

श्रीमती (सी.ए.)रुक्मण लड्ढा,
मोबाइल नं.09820229406,
अंधेरी, मुंबई-400 058.

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