आमलकी एकादशी | आमलकी एकादशी व्रत

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। आमलकी एकादशी की महिमा बताते हुए भगवान श्री विष्णु ने कहा है कि जो व्यक्ति स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं, उनके लिए फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष के पुष्य नक्षत्र में आने वाली एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस दिन आंवला पूजन का विशेष महत्व है। पौराणिक जानकारी के अनुसार विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया, उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा उसके हर अंग में ईश्वर का स्थान बताया गया है।
भगवान श्री कृष्ण बोले - हे धर्मराज! युधिष्ठिर ! मैं तुम्हें फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत की विधि और माहात्म्य बताता हूँ, ध्यान से सुनो – इस एकादशी का नाम 'आमलकी' एकादशी है। इसके पवित्र व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और जीवन में सफलता मिलती है। इसका पुण्य एक हजार गोदान के फल के बराबर है और अन्त समय में विष्णु लोक में स्थान मिलता है। त्रेता युग में एक दिन महान् राजा मान्धाता ने वशिष्ठ जी से पूछा कि हे द्विजश्रेष्ठ ! यदि आपकी मुझ पर कृपा दृष्टि हो, तो किसी ऐसे व्रत को बताइए जिसको करने से मेरा कल्याण हो सके। महर्षि वशिष्ठ जी बोले- आमलकी एक महान वृक्ष है, जो सब पापों का नाश करने वाला है।
भगवान विष्णु के थूकने पर उनके श्रीमुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट हुआ और वह बिन्दु पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलकी (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ। इसके सभी वृक्षों का आदि भूत वृक्ष प्रकट हुये। कहते हैं, इसी समय भगवान विष्णु जी के नाभि से निकले कमल में से ब्रह्माजी उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्त:करण वाले महर्षियों को ब्रह्मा जी ने जन्म दिया। उनमें से देवता और ऋषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकी का वृक्ष था। उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे उत्कण्ठा पूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और सोचने लगे कि प्लक्ष आदि वृक्ष तो पूर्व- कल्प की ही भाँति होते हैं, जो सब-के-सब हमारे सुपरिचित हैं, किन्तु अब तक हमने इस वृक्ष को नहीं देखा था। उन्हें इस प्रकार चिंता करते देख आकाशवाणी हुई-
हे महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकी का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरण मात्र से जैसा फल मिलता है। इसको स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से एकादशी व्रत कथाएँ - महात्यम का तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। अत: आमलकी का सेवन करने का ध्यान रखना चाहिये। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है।

प्राचीनकाल में वैदिश नामक एक सुन्दर और श्रेष्ठ नगर था, जहाँ पर चन्द्रवंशी राजा पाश बिन्दु के वंशज चैत्ररथ का राज्य था। वह अत्यंत विद्वान, धर्मात्मा एवं सत्यव्रती और सम्पन्न था। उसके राज्य में चारों वर्ण-ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र - सब मिलजुल कर रहते थे। नगर में सर्वत्र शांति थी। कोई निर्धन, कृपण नहीं था। उस नगर के सब नगरवासी विष्णुभक्त थे और सभी बाल, युवा एवं वृद्ध एकादशी का उपवास रखते थे। वह नगर वेद ध्वनि से सर्वदा गूंजता रहता था। एक बार फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन समस्त प्रजाजनों ने प्रसन्नतापूर्वक इस एकादशी का उपवास किया। राजा प्रजा सहित मंदिर में आकर कुम्भ स्थापित कर धूप, दीप, नैवेद्य, आदि से.. धात्रि (आंवले) का पूजन करने लगा। वे सब देवी की स्तुति करने लगे और बोले - हे देवी! आप ब्रह्मा से उत्पन्न हो, सब पापों का नाश करने वाली हो, तुमको नमन है। हमारा अर्घ्य ग्रहण कर हमें कृतार्थ करो। तुम श्री रामचन्द्रजी के द्वारा पूजनीय हो। अत: हमारी प्रार्थना स्वीकार कर हमारे समस्त पापों को नष्ट कीजिये।
जहां पर देव-मंदिर में सबने रात्रि जागरण किया। ठीक उसी समय वहाँ एक शिकारी आया जो दुराचारी, महापापी था। वह अपने परिवार का पालन करने के लिये जीव-हिंसा करता था। उस समय वह अत्यन्त बेचैन था और भूख-प्यास से व्याकुल था। भोजन प्राप्त होने की आशा लिए वह मंदिर के एक कोने में जा बैठा। अपनी भूख-प्यास भूल वहाँ हो रही विष्णु कथा और भजन-कीर्तन सुनने में मग्न हो सारी रात जागरण में बिता दी। प्रात: काल होते ही अपने घर चला गया और जाकर भोजन किया। कुछ समय पश्चात ही उसकी मृत्यु हो गई। परन्तु आमल की एकादशी में रात्रि जागरण और प्रभु भजन-कीर्तन श्रवण के पुण्य- प्रभाव से उसका जन्म राजा विदूरथ के यहाँ हुआ। उसका नाम वसुरथ रखा गया। युवा होने पर वह अपने पिता के राज्य का राजा बना। वह चतुरंगिणी सेना का भी प्रधान बन गया तथा धन-धान्य से सम्पन्न होकर दस हजार ग्रामों पर शासन करने लगा।
एक दिन नरेश जब शिकार खेलने वन में गया, तो देवयोग से वह रास्ता भूल कर इधर- उधर भटकने लगा। रात्रि होने पर और अन्त में थक कर एक वृक्ष के नीचे सो गया उसी समय कुछ पहाड़ी डाकू भी वहाँ आ गए। डाकुओं के सरदार ने जब राजा को निद्रा में लीन देखा तो वे सब मारो! मारो! चीखते हुए राजा पर टूट पड़े और अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु उनके सारे प्रहार फूल में परिवर्तित हो कर नष्ट हो जाते। डाकुओं के अस्त्र-शस्त्र वापस पलट कर डाकुओं पर ही वार करने लगे। वे सब डाकू मूर्छित होकर गिर पड़े। उसी अवस्था में राजा के सप्त शरीर से एक अत्यन्त तेजस्वी दिव्य देवी प्रकट हुई, जो कि स्वयं महाकाली समान प्रतीत हो रही थी। क्रोधित हो चक्र लेकर उन डाकुओं को मारने दौड़ी। उस देवी ने अपने अस्त्रों के प्रहार से समस्त डाकुओं को मौत की नींद सुला दिया। जब राजा की नींद खुली, तो वह वहाँ पर उन डाकुओं को मृत देख चकित हुआ और सोचने लगा कि इन डाकुओं को किसने मार कर मेरी रक्षा की है। जब वह राजा ऐसा विचार कर ही रहा था, तभी आकाशवाणी हुई- हे राजा! इस संसार में विष्णु भगवान के अलावा और कौन रक्षक हो सकता है। स्वयं प्रभु ने तुम्हारी रक्षा की है। यह आकाशवाणी सुनकर राजा ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और प्रसन्नचित्त हो, अपने महल में वापस आकर सुखपूर्वक रहने लगा तथा राजकाज चलाने लगा।
महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा- हे नरेश ! यह सब आमलकी एकादशी के पुण्य-प्रभाव से ही संभव हुआ है।
एकादशी व्रत पूजन-विधि -
पूजन करने वाले स्त्री-पुरुष स्नान करके स्वच्छ पीले या सफेद रंग की धोती- दुपट्टा यज्ञोपवीत धारण करें। पूजा प्रारम्भ करने - पहले अपना मुख पूर्व दिशा की ओर करके बैठना चाहिए। पत्नी को दाहिनी ओर बैठा कर गांठ जुड़वा कर पूजन प्रारम्भ करें। कुशा या आम के पत्तों से अपने ऊपर तथा पूजन-सामग्री पर जल छिड़कें। तीन बार आचमन करें, हाथ धो लें, पवित्री पहनें और मंत्र पढ़ें। हाथ में अक्षत - फूल लेकर भगवान का और गरुड़ का आह्वान करें। फूल - अक्षत मूर्ति पर चढ़ा दें। इसके बाद हवन प्रारम्भ करें।
पूजन सामग्री - फूल माला, फूल - गुलाब की पंखुड़ियां, दूब, आम के पत्ते, कुशा, तुलसी, रोली, मौली, धूपबत्ती, केसर, कपूर, सिन्दूर, चन्दन, प्रसाद में पेड़ा, बताशा, ऋतुफल, केला, पान, सुपारी, रुई, गंगाजल, अग्निहोत्र भस्म, गोमूत्र, गोबर, घृत, शहद, चीनी, दूध, दही, यज्ञोपवीत, अबीर (गुलाल), अक्षत, अभ्रक, गुलाब जल, धान का लावा, इत्र, शीशा, इलायची, पंचमेवा, हल्दी, पीली सरसों, मेंहदी, नारियल, गोला, पंचपल्लव, बंदनवार, कच्चा सूत, मूंग की दाल, उड़द काले, बिल्वपत्र, पंचरत्न, सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, पंच रंग एवं सर्वतोभद्र के लिए लाल-सफेद वस्त्र, नवग्रह हेतु चौकी, घण्टा, शंख, कलश, गंगासागर, कटोरी, थाली, बाल्टी, कड़छी, प्रधान प्रतिमा, पंचपात्र, आचमनी, अर्घा, तुष्टा, सुवर्ण शलाका, सिंहासन, छत्र, चंवर, अक्षत, जौ, घी, दियासलाई आदि । हवन सामग्री में - यज्ञ पात्र व समिधा आदि लें।
एकादशी के दिन आंवले वृक्ष की नौ परिक्रमा करने तथा आंवले का सेवन करने से सौभाग्य और स्वास्थ्य का वरदान मिलता है।
मंत्र -
ॐ नारायणाय नम:।
ॐ हूं विष्णवे नम:।
ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि।
ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
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