जाने किसने उसका नाम निर्मला रखा था ? लोग उसे ये नीरमाला -ये नीरमाला बुलाते।

जाने किसने उसका नाम निर्मला रखा था ? लोग उसे ये नीरमाला -ये नीरमाला बुलाते। मुझे भी ये सुनने की इतनी आदत हो गई थी कि कई बार उसे आवाज़ देते हुए मैं भी पुकार उठती थी ,” ये नीरमाला कहाँ बाडू हो ? बाबु कबसे माला-माला कहअता “ मेरा बेटा सत्यार्थ उर्फ़ मीर मस्ताना नर्मला को देख कर खूब खुश हो जाता। मस्ताना की तरह उसकी बातों पर हँसता-ताली बजाता।
फ़रवरी की ठंढ और मसान किनारे बसा मेरा गाँव, आधे दिन कुहा-और हल्की धूप से आँख मिचौली खेलते बीत जाता। हमलोग रज़ाई में दुबके खिड़की के पीछे से बाहर की दुनिया चलते देखते।
मेरे घर के सामने कुम्हार लोगों का घर है। उनकी पाँच -छह पट्टी में कुल मिला कर क़रीब चालीस-पचास लोगों होंगे। एक को छोड़ कर बाक़ी के घर फूस के ही है। दुआर के नाम पर ईटाकरन वाली सड़क है उनके पास। उसी के किनारे उनका जर-जलावन, भूसा-पतहर, बकरी-गाय सब डेरा जमाए रहते। कई बार तो धीरे-धीरे गोईठा-गोबर-पतवार और जानवर खसकते-खिसकते सड़क पर आ बैठते। सड़क रूपी दुआर के एक कोने पर दिन भर घूर ( आग) लगा रहता।
सुबह-सुबह एक खेप घूर ताप कर खेत की ओर निकल चुका होता। दूसरी खेप महिलाओं और बच्चों की होती जो दिन भर वहीं आते-जाते डेरा जमाए रहते।
इनके बच्चों की शोर से जब हम सभ्य लोग नव बजे तक भुनभुनाते हुए जगते, तब तक इनका एक बार दाल -भात से नाश्ता हो गया रहता। महिलाएँ घर- बाहर, चूल्हा -चौका कर के निश्चिंत हो गई रहती। अपने देश में रह रहे उनके घर के कुछ पुरुष गाय- भैंस, चोकर -लेदी -गोबर आदी का काम निबटा कर किसी दूसरे काम में लग गए होते।
इन्हीं घरों में सबसे किनारे वाला घर निर्मला का है। टाटी-फूस का बना घर, चिकटी मिट्टी से पोता हुआ बड़ा सुंदर लगता। उसके ऊपर शायद निर्मला ने ही लाल रंग से कुछ फूल-पत्तियाँ बनाई होगी जिनका रंग अब समय की मार से फीका पड़ चुका है। सारे कुम्हार पट्टी में एक निर्मला को हीं थोड़े दुआर की जगह हैं जिसे वो बहुत साफ़- सफ़ाई से रखती है। दुआर के कोने में एक नाद गाड़ा हुआ है जिसे वो दुआर बुहारने के बाद साफ़ करती है। उसमें घास-भूसा मिला कर बछड़ा को वहाँ बाँध आती।

निर्मला के यहाँ एक बछड़ा और कुछ बकरियाँ है। नाद के किनारे बँधा बछड़ा जब घास खाने में आना-कानी करता तो निर्मला थोड़ा और भूसा ला कर उसमें मिलती और बछड़े को कहती ,” हेन… खाली भूसे खईबू ?
कहाँ से आई एतना ?”
मुझे उसकी बात पर हँसी आ जाती और खिड़की के पीछे से उसे टोकती ,” का हो निर्मला, काहे भोरे-भोरे बछड़ा के डाँटतारु ?”
हँस कर उसने कहा ,” दीदी अभी भोरे बा ? जा के टाईम देखी टाईम, नव-दस से कम ना बजत होई “ देह-धुआ से ठीक-ठाक निर्मला पर रानी रंग का सलवार-क़मीज़ बड़ा सुंदर लगता। गहरी साँवली काया पर सफ़ेद मोतियों से दाँत झक से लगते। तेल लगे बालों में टेढ़ी माँग निकाल कर बनाई उसकी चोटी कई बार मोड़- मोड़ कर रबड़ लगाई होती। उसे देख कर लगता कि बाल हमेशा बनाई हुई है। एक लट भी इधर-उधर नही। उसके कानों के पीतल के छोटे-छोटे फूल उसके मुख की चमक को दुगना कर देती।
मेरे बेटे को देखते ही कहती ,” ये बाबू… ये बाबू कहाँ रहल हो ?
आवअ बकरी देखाई … चल घुमा लाई…” और मेरा बेटा उसे देख कर इतना खुश होता जैसे कोई स्वप्न परी उसके सामने हो।
मेरी माँ मेरे बेटे की ख़ुशी देख कर कहती ,” निर्मला बबी हमरा नाती पर जादू कर देले बाड़ी “ इतना सुनते हीं निर्मला हँसने लगती। मेरे बेटे को और प्यार करने लगती और कहती ,” हाँ… ई त हमारा बकरी के फेर में बाड़न खाली, का हो बाबू ऊहा बकरी ना मिले ?”
बातचीत के बीच में माँ ने कहा, “ अगले साल से तो निर्मला यहाँ नही होगी तब मेरा नाती किससे खेलेगा इतना?
इतना सुनते हीं निर्मला शर्मीली हँसी के साथ कहती है ,” चाची जी, ना नू रहेम नू दू साल ईहा... ब्याह के बाद दोंगा होई हमार।“
निर्मला की शादी तय हो गई थी। ये कोई प्रेमचंद की निर्मला नही जो दहेज के कारण किसी अधेड़-दोहाये से ब्याही जा रही हो। एक शाम निर्मला ने मुझे अपने होने वाले पति की तस्वीर दिखाई थी । चेहरे पर झिझक की हल्की छाप लिए नीली टी-शर्ट में एक बीस-पचीस साल का लड़का है। देखने में गोरा-चिट्टा , सुंदर नैन-नक्श, मैट्रिक पास किया हुआ। लड़का चंडीगढ़ किसी धागा की कम्पनी में काम करता है। निर्मला को इससे ज़्यादा की चाह ना थी और वो बहुत खुश थी।
फोटो देख कर मैंने कहा ,” बहुत बढ़िया लड़का बा हो। बुझा ता बियाह ला हीं फोटो खिंचाई बा “निर्मला शर्माते हुए कहती है ,” हाँ दीदी। माई कहलें रहे कि एगो फोटो भेजी त इहे आइल।”
फिर आगे कहती है जाने कैसे हमको पसंद कर लिया वो लोग?
सब मईया जी की कृपा होई तबे नू दीदी? और मैंने उसकी तरफ़ देख कर कहा ,” तुममें कमी क्या है जो कोई मना करेगा?”
मेरी बात से खुश होती निर्मला अपने होने वाले ससुराल के बारे में बताने लगती है ,” घर में बुड्ढी सास है, ससुर रहे नही। दो छोटे देवर, दो बड़ी ननदें जिनका बियाह हो चुका है। ऐसे में उनके घर में किसी ऐसी की ज़रूरत है जो सब काम-धंधा सम्भाल ले।”
दो देवरों की बात सुनकर कर मुझे प्रेमचंद की निर्मला के मंशाराम, उससे छोटा जियाराम और सियाराम की याद आ गई। पर जल्द हीं मैं अपनी झेंप से बाहर कर मन में सोचती हूँ,” हट ये निर्मला उनकी निर्मला जैसी सुकुमार नही। मेरी निर्मला तो दुःख-आभाव में तप कर हीं सोना सी चमक रही थी।
मैं बहुत खुश थी इस निर्मला को देख कर जो अपने जीवन साथी की तस्वीर देख-देख कर लाल हुए जा रही थी। हल्की-हल्की जीवन भरी मुस्कान उसके चेहरे पर खेल रही थी…
तुम सदा सुखी -सौभाग्यवती रहो निर्मला।