जयपुर शहर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह जी ज्योतिष, खगोल शास्त्र, अंतरिक्ष विज्ञान एवं वास्तुशास्त्र के विशेषज्ञ थे। उनके शासन काल में इन विषयों पर अनेको ग्रंथों की रचना की गयी। उनके द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों एवं अन्य आकाशीय पिण्डों के अध्य्यन हेतु दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, बनारस एवं मथुरा में वेधशालाओं का निर्माण करवाया गया। जयपुर वेधशाला इन सबमें से सबसे बड़ी, सुनियोजित एवं पूर्णतया संरक्षित है तथा इसके यंत्रों से अभी भी सटीक गणनाये होती है जिससे पंचांगों का निर्माण किया जाता है।
ज्योतिष एवं वास्तु शास्त्र के साथ - साथ महाराजा सवाई जयसिंह जी संस्कृत वांग्मय के भी प्रकांड विद्वान थे। इसी कारण भाषा और संस्कृत के अनेक विद्वानों यथा प. जगन्नाथ सम्राट, रत्नाकर जी, पुण्डरीक जी, श्री कृष्ण भट्ट, कवि कलानिधि आदि की जयपुर लेकर आये। इन्होने प. विद्याधर चक्रवर्ती के साथ नगर निर्माण हेतु मानचित्र बनाने की प्रक्रिया भी अपनायी।
जयपुर भारतीय ज्योतिष के मर्मज्ञ विद्वानों का केंद्र रहा है। यह नगरी देवभाषा वांगमय के पुनीत तीर्थ के रूप में विकसित हुई। इसे अपराकाशी एवं गुलाबी नगरी के रूप में भी जाना जाता है। जयपुर का नगर वास्तु और यहाँ पर स्थित पुरातात्विक धरोहर देशी - विदेशी पर्यटको में विशेष आकर्षण का केंद्र है।महाराजा सवाई जयसिंह जी द्वारा प्रारम्भ की गई ज्योतिष और वास्तु शास्त्र परम्परा की ज्योतिष एवं गणित के विद्वानों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी अक्षुण्ण बनाये रखा गया।
आकाश में स्थित ग्रह - नक्षत्रों का प्रभाव जब पृथ्वी के वातावरण, प्राणियों, वनस्पतियों तथा ऋतु परिवर्तन में देखा गया, तो मनीषियों ने इस संबंध में अधिक खोज करने के निश्चय के साथ आकाश में भ्रमणशील ग्रहों की स्थिति को समझने का प्रयास किया।
भारत के प्राचीनतम उपलब्ध वैदिक साहित्य के अनुसार वैदिक काल में भी यज्ञ किये जाते थे, परन्तु विशिष्ट फल प्राप्त करने हेतु इनका आयोजन निर्धारित समय पर किया जाना जरुरी था, इसलिए वैदिक काल से ही भारतीयों ने वेदों द्वारा चँद्रमा और सूर्य की स्थितियों से काल का ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया था।
वैदिक ज्योतिष ग्रह - नक्षत्रों की गणना की वह पद्वति है, जिसका विकास भारत में हुआ तथा आज भी यहाँ इसी पद्धति से पंचांग बनाये जाते है, जिनके आधार पर देश में धार्मिक आयोजन तथा पर्व मनाये जाते है। हम सभी जानते है कि वैदिक ज्योतिष का सम्बन्ध बारह राशियों एवं नौ ग्रहों से है तथा इसके सिद्धांतों के अनुसार प्रत्येक ग्रह का प्रभाव एवं इन ग्रहों द्वारा वाला फल व्यक्ति के पिछले जन्मो के कार्यों के अनुरूप पूर्व निर्धारित है। इन ग्रहों तथा राशियों की स्थिति समय के साथ परिवर्तनशील है, जिसका प्रभाव मानव जीवन की कार्य पद्धति पर अवश्य पड़ता है।
रामायण और महाभारत काल में भी इस बात के उल्लेख मिलता है कि भारतवासी ग्रह - नक्षत्रों के वेध तथा उनकी स्थिति से परिचित थे।
"सिद्धांत - संहिता - होरा रूपस्कन्धत्र्यातमकम |
वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमनुतनम || "
अर्थात वेदों के नेत्र कहे जाने वाले ज्योतिष शास्त्र को प्रधानतः तीन स्कन्धों - सिद्धांत, होरा एवं संहिता में विभाजित किया गया है। सिद्धांत अर्थात खगोल विज्ञान (एस्ट्रोनॉमी), होरा अर्थात फलित ज्योतिष (एस्ट्रोलॉजी) तथा संहिता में ज्योतिष की समिश्र विद्याओं यथा - वास्तुशास्त्र, जन्मकुंडली, मुहूर्त, हस्तरेखा (सामुद्रिक विज्ञान), अंगविद्या, शकुन विद्या, दकार्गल, अंक विद्या, रमल, स्वप्न शास्त्र, फेस रिडिंग, प्रश्न कुण्डली, टेरो कार्ड रीडिंग, गोचर मंत्र, रत्न एवं धातुओं का प्रभाव, स्वर विज्ञान आदि विषयो के सम्बन्ध में जानकरी मिलती है।
तारों, नक्षत्रों एवं ब्रह्माण्ड को जानने के लिए महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा भारत में वेधशालाओं का निर्माण करवाया गया। ज्योतिर्विद इन वेधशालाओं को 'यन्त्रस्य मंदिरम' अर्थात यंत्रों की मंदिर के रूप में महिमा मंडित करते है तथा यहाँ पर एक अदभुत आनंद की अनुभूति होती है।
लेखिका - शशि प्रभा जी स्वामी, जयपुर (राजस्थान)
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